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मूलाराधना
आश्वास
होता है. इनको पहिले तीन स्थान होते हैं. और छहों संहननोमसे कोई एक सहनन होता है. इनके देहकी अव गाहना माता लवर पांगगा धनुध्यपर्यत होती हैं. इनका आयु अठारह मास अथवा पूर्व फोटी होता है, उनको पारण माजि, आहारमा प्रति अथवा विक्रिया गति और आहारक ऋद्धि होती है, यांगसमाांक अनंतर अवधिज्ञान, मनःपर्यय अथवा केवल ज्ञान उत्पन्न होना है. इस तरह परिहार संयमका विधि कहा है.
जिनकल्पका निरूपण
जिन्होंने राग द्वेप और मोहको जीत लिया है, उपसर्ग और परीपहरूपी शत्रुके वेगको जो महते हैं और जो जिनेंद्र भगवानके समान विहार करते हैं ऐसे मुनिओंको जिनकल्पी मुनि कहते हैं. इतनी ही विशेषता इन मनिआ में रहती है. बाकी सर लिंगादिक आचार मायः जैसा पूर्वमें वर्णन किया है वैसा ही इनका भी समझना चाहिये.
क्षत्रादिकोके द्वारा इनका वर्णन करते हैं -
सर्वधर्म क्षेत्रों में ये जिनकल्पी मुनि होते हैं. कालकी अपेक्षासे ये मुनि सर्व कालमें होते हैं. ये मामायिक और छेदोपस्थापना चारिप धारक होते हैं, तीर्थकी अपेक्षारो पर्व तीर्थकांकि तीर्थ में इनकी उत्पति होनी है. जन्मग तीस पपतक भोगोंको भोगते हैं. तदनंतर उन्नीस अप तक मुनिपर्यायमें रहकर अनंतर जिनकल्पी मुनि होते है. इनको नो या दश पोंका ज्ञान होता है. इनको तेजोलझ्या. पीतलश्या, और पालेश्या ये लेश्यायें होनी हैं. धर्मध्यान और शुकलध्यान में लीन रहते हैं. इनका प्रथम संहनन बर्षमनाराच नामका होता है. छहसंस्थानों से कोई एक मस्थान होता है. इनके देहका आयाम सात हाथको आदिलेकर पाचसो धनुष्य पर्यंत होता है. इनका जघन्य आयष्य मित्रगहनादिक रहता है. आर. उत्कृष्ट आयप्य कुल कम पूर्व कोटि वर्षका होता है. इनको विक्रिया, आहारक, चारण और क्षीगाविनादिया माद्धि होती है, परंतु पपीतराग होनसे उनका उपयोग करते नहीं. इनको अवधिज्ञान और मन। पर्यशान होना है. कितनाहीको कवलजान भी होता है. जो कंबली होते थे नियमसे मोक्ष प्राप्त कर
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