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मूलाराधना
आश्वास:
आत्मपरित्याग दोषका स्वरूप कहते हैं--
अर्थ-आचार्य के बारा क्षपकके अपराध सर्वजन समक्ष प्रगट होजाने पर धपक्के मनमें यदि द्वेष बह गया तो वह आचार्यको मारेगा अथवा गच्छमें फूट उत्पन्न करेगा अर्थात् इस आचार्यने जैस मरे दोप प्रगट किये हैं बसे यह तुम्हारे दोष भी प्रगट करेगा, निरपराधी ऐसे तुमको यह क्षण लंगावेगा. यह आचार्य स्नेहरहित है इसको छोड दो ऐसा बोलकर वह सर्वसंघमें मदनाप उत्पन्न करना तथा आचार्यका शत्रु बन जावंगा, गणत्यागं कथयति
___जह धरिसिदो इमो तह अम्हं पि करिग्ज धरिसणमिमोत्ति ॥ . सव्वो वि गणो विप्परिणमेज छंडेज्ज वायरियं ॥ ४९२ ॥ .
'विश्वस्ती भाषते शिष्यः सूरेरग्रे स्वदषणम् ॥ 'परस्याय पुनर्वृते सपाचारपहिर्मयः ।। ५०६ ।। यथायं दृषितोऽनेन दूषयिष्यति नस्तथा ॥
इति ऋद्धी गणः सर्व पृथक्त्वं प्रतिपद्यते ॥ ५०७॥ बिजयोदया--जह धरिसिदो रमों पृथा दृपिसोऽयं । तह तथा । अह्म पि करेज्ज धरिसणमिमोक्ति अस्मान्दूपितान्कुर्यात् अयमिति । विपरिणमेज पृथग्मत् । छडेल बायरियं त्यजेद्वाचार्य त्यजतीति कथ्यत तेन गणस्त्यक्त इति पूर्वसूत्रितं । ततोऽनयोन संगतिरित्यत्रोच्यते । यत पय रिणा द्वेषप्रत्याख्यानपरेण त्यक्तोऽसौ तत एवं गणतं स्यजति ।।
कथं गणः परित्यक्त इत्यत्राह - मूलारा-धरिसिदो दूषितः गुह्यप्रकाशनमापकृतः । छडज त्यजेत् । गणत्यागका वर्णन -
जैसा आचार्यने इस क्षपकको दोष का करके दुषित किया है वैसा यह हमको भी दूषित करेगा ही ऐसा विचार कर गण भी आचार्य प्रतिकूल होकर उसका त्याग करेगा. अथवा उससे स्वयं अलग होगा. दोषका कथन करनेवाले आचार्यने गणका त्याग किया ऐसा पूर्व में कहा है और यहाँ गण आचार्य को छोड़ देता है ऐसा कहते