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________________ मूलाराधना आश्वासा वर्ष आयुष्य आदि लेकर तीन सागरोपम आयुध्यत्तक उसहो नरकम उत्पन्न होता है. तिसर नरक में एक समय अधिक तीन सागरोपम से प्रारंभकर दो तीन चार पांच इत्यादि समयोंसे बचता हुवा सात सागरोपम आयुष्यकी परिपूर्णता करता हुआ यह जीव बार बार तीसरे नरकमें ही उत्पन्न होता है. चौथे नरकमें समयाधिक सात सागर से लेकर द्वितीयादिक समयादिके क्रमसे दशसागरोपमकी समाप्ति होनेतक चतुर्थ नरकमें इस जीवने जन्म धारण किये हैं. पांच में नरकमें एक समयाधिक दशसागरोपमायुष्यका प्रारंभ करके द्वितीयादि समयाधिकके क्रमानुसार सतरा सागरोपमायाज्यकी समाप्ति होनेतक पांचवे नरकमें इस जीवने जन्म धारण किया था. छठे नरकमें समयाधिक सतरा सागरोपमायुप्यका प्रारंभ कर दुसरा, तिसरा वगैरे समय अधिक बढाता हुआ बावीस सागरोपमायुष्य तक असंख्यात जन्म जीयने धारण किये हैं. सान नरको समयाधिक याचीस सागरोपम आयुष्य से उत्पन्न होकर समयाधिक क्रमसे तेहतीस सागरीपमायध्यकी समाप्ति होनेतक इस जीवने असंख्यात जन्म धारण किये हैं. इस प्रकार आयुके विकल्पोंको धारण करते हुए इस जीवने मवसंसारमें भ्रमण किया है. .. भावसंसारका स्वरूप सर्वजन सुख से जान सकते हैं इसलिये यहां उसका वर्णन करनेकी आवश्यकता नहीं है. इस प्रकार इस संसारसमुद्र में जानाविध तीव दुःखस्पी पानी है शारीरिक, मानसिक, आगंतुक व स्त्राभाविक एम दुःखके अनेक भेद है. इस गंसारमें भ्रमण करने वाले इस जीवको कष्टस मनुष्यपना प्राप्त होता है, सर्व जगतमें मनुष्य उत्पन्न होनेका क्षेत्र अल्प है और वियच प्राणी सर्व जगतम उत्पन्न होते हैं. मनुश्यपना जिसमें उत्पन्न होता हैं एवं कर्मकी उत्पत्ति करनेवाले कारणभूत परिणामाकी प्राप्ति होना कठिन है इसलिये मनुण्यत्व दुर्लभ है. मनुष्यत्व प्रासिके परिणाम कोनसे हैं इस प्रश्नका उत्तर जीवोंके परिणाम मिथ्यात्व, असंयम और कक्षाय ऐसे तीन प्रकारके हैं. वे परिणाम भी तीत्र, मध्यम और मंद है. कारणों में अर्थात् कोंमें तीन, मध्यम और मंद स्वभाव रहता है अतः उनसे उत्पन्न होनेवाले परिणा मोमें भी तीव, मध्यम और मंदता आनी है. कारणों में भेद होनेसे कार्यरूप परिणामों में भी विचित्रता आती है. इन परिणामोमें जो मध्यम हिंसादि परिणाम हैं वे मनुष्यपना के उत्पादक है. वालुकामें खीची हुई
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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