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मूलाराधना
भावा
मूलारा स्पष्टम् ॥ मुजनके आश्रयस अभ्युदयफल, पूजालाम होता है इसका विवेचन---
अर्थ-..निगम भी गुण रहयेहानाही शेषा है-प्रसाद है ऐसा समझकर लोक उसको अपने मस्तकपर धारण करते हैं. वैसे सज्जनोंमें रहनेवाला दर्जन भी लोकसे पूजा जाता है.
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इब्यसंयमे बाकायनिमित्तात्रयनिरोधरूपे प्रवृत्तिगुणं कथयति---
संविग्गाणं माझे अप्पियधम्मो विकायरो वि णरो॥ उज्जमदि करणचरणे भावणभयमाणलजाहिं ॥ ३५२ ॥ कातरोऽनियधर्माऽपि व्यक्तं संविग्नमध्यगः ।
भीत्रपाभावनामानैश्चारित्रं यतते यतिः ।। ३५७ ।। विजयोदया--संधिगाणं मज्झे इत्यनया । संसारभीरूणांमध्ये वसम्नपि यद्यपि धर्ममियो न भवति । कातरवासुखे तथापि उद्युक्त पाएक्रियानिवृत्ती भावनया, मयेन, मानेन, लज्जया च ॥
संयतानां मध्ये निवसम्मप्रियधपि संयमे यनते हत्युपदिशतिमूलारा---चरणकरणे पापक्रियानिवृत्ती, भावण वासना, माण अभिमानः ।।
वचन और शरीरकी प्रवृत्तिसे उत्पन्न होनेवाले आस्रवका निरोध होना यह द्रव्यसंयम है. सज्जनोंके आश्रयसे इस द्रव्यसंयममें प्रवृत्ति होती है यह अभिप्राय आचार्य स्पष्ट करते हैं
अध--कोई मुनि संसारभीरु यतिओक साथ रहकर भी धर्मपर प्रेम नहीं करते हैं. और दुःखसे, परीपह और उपसर्गसे भय युक्त होते है, तो भी भावना, भय मान और लज्जाके वश होकर पापक्रियाओंका के त्याग करत हैं. तात्पर्य यह है कि, सज्जनोंका सहवास आवश्य फलप्रद होता है. संसारभीरोरपि यतेः सुजनसमाश्रयणेन गुणमभिदधाति....
संविग्गोवि य संविग्गदरो संवेगमज्झयारम्मि ॥ होइ जह गंधजुत्ती पयडिसुरभिदव्वसंजोए ॥ ३५३ ॥