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मूलाराधना
आश्वासः
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जहदि य णिययं दोस पि दुजणो सुयणवइयरगुणेण ।। जह मेरुमल्लियंतो काओ णिययञ्छवि जहदि ॥ ३५० ।। दष्टोऽपि मुंनते दोषं स्वकीय शिष्टसंगतः ॥
कि मेकमाश्रितः काका न धत्ते कनकच्छविम् ।। ३५५ ।। विजयोन्या- साहदि जहाति निजमपि दोषं दुर्जनः सुजनमिश्रगुणेन । यथा मेरुसमाश्रयणे काफो जहाति सहजामपि छायामशोभनां तद्वतां । संतोपि योषा नश्यति सुजनाश्रयेण ततस्ते समाश्रयणीया इति भावः ।।
सुजनसमाश्रय गाथासप्तकेंन गुणान्याचक्षाणः सुजनाः समाश्रयणीया इत्युपदिशतिमूलारा--परिकर सांगत्वं । अल्लियतो आश्रयन् ।। सुजनोंका सहवास करनेस गुणोंकी प्राप्ति होती है इस विषयका वर्णन आचार्य अनेक गाथाओंसे करते हैं.
अर्थ -- दुर्जन मनुष्य सज्जनाका सहवास करके उनके गुणोंमे युक्त होता है. और अपने पूर्व दोषोंको वह छोडता है. इसका उदाहरण यह है निराशाश्रय करनेवाला कौरा अपनी स्वाभाविक मालिन कातिका म्यागकर मरुपर्वतकी सुवर्णकांतिका आश्रय करता है. अभिप्राय यह है कि सुजनसंगस विद्यमान दोष भी नष्ट होते हैं, इसलिये उनका ही आश्रय करना योग्य है,
खजनासमाधयणे अभ्युदयफलं. पूजालाम कथयति गाथा....
कुसुममगंधभवि जहा देवयसे सत्ति कीरदे सीसे ॥ तह सुयणमञ्झवासी वि टुज्जणो पूइओ होइ ॥ ३५१ ॥ पूजां सजनसंगन दर्जनोऽपि प्रपद्यते ।।
देवापर विगंधापि क्रियते किं न मस्तके ।। ३५९॥ विजयोश्या सममित्यादिका । यथा सौगंध्यरहितमधि फसमं देवताशेरेति क्रियते शिरसि तथा साधुजन मध्यावासी दुर्जनोऽपि पूजितो भवति ।
साधुसंगनासाधुरपि पूजा प्राप्नोति इत्याह
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