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________________ मूलाराधना সামধে: विजयोदया-अविसंजदो मि इत्यनया-अतीव संयतोऽपि दुर्जनकृतेन दोषेण प्राप्नोति। दोस अनर्थ । यथोलूकरुतदोषनिमित्तं अपापोऽपि इंसो इतः ।। दुर्जनगोट्या एंड्लीकिकानीवहत्यमाह-- मूलारा–अपायो वि अपापोऽपि निर्देषोऽथि || वर्जनसहवाससे इहपरलोकमें अनर्थ होता है इसका दृष्टान्तपुरःसर स्पष्टीकरण करते है-- अर्थ- पहाट तपती भी दर्जनके दोपोंसे अनर्थमें पड़ते हैं, अर्थात दोष तो दुर्जन करता है परंतु फल मुज्जनको भोगना पड़ता है, जैसे उल्लूके दोपसे निष्पाप हंसपक्षी मारा गया. दुजनगोला दोरांताता दुजणसंसग्गीए त्रिभाविदो सुयणमझयारम्मि ॥ ण रगदि रमदि य दुजणमझे वेरग्गमवहाय ।। ३१९ ॥ दुष्टानां रमते मध्ये दुष्टसंगेन वासितः॥ विदरीकृतवैराग्यो न शिष्टानां कदाचन ।। ३५४ ।। विजयोदया-ज्जणसंगीप, विभाविदो दुर्सनगोप्या भावितः । सुमणमझयारम्मि सुजनमध्ये। परमदि न रमते । र मदिगदुज्जयामन रमते नमध्ये । बेरम्गमबहाय बैराग्यं परित्यज्य || दुर्जनगोष्टश दोषांतरमाह-- मूलारा-बेरगमवहाय संयमं त्यक्त्वा ।। दुर्जनसहवाससे और भी दोष होते हैं यह दिखाते है ---- अर्थ - दुजनके संसर्गसे दुष्ट बना हुआ मनुष्य सुजनों में रहना अर्थात उनकी संगति करना पसंत नहीं । करता है. परंतु वह पुरुष वैराग्यको छोडकर बुर्जनोंके समूह में बडे आनंदसे रहता है. 1 सुजनसमाभरणे गुणण्यापनायोत्तरसूत्राणि-- -
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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