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________________ मूलाराधना आश्वास परदोसगहणलिच्छो परिवादरदो जणो खु उस्सूणं॥ दोसत्थाणं परिहरह तेण जणपणोगामं ।। ३४७ ।। परदोषपरीवादग्राही लोको यतोऽग्विलः । अपवादपदंदा मुंचध्वं सर्वदा ततः ।। ३५० ।। विजयोदया-परदोसगहणलिच्छो परदोषप्रणेच्छावान्। परिवादग्दो परोक्ष परदोषवचने रतः । जणो जनः । उस्सूर्ण खु नितरामेव । तेण दोसस्थाणं परिहरहतेन दोषस्थानपरिहारं फुरत । जण जपणोमास जनजल्पनाषकाशं ।। दोषावतारस्थानपरिहारमाह गृला. किलो इलावार ! परिवादरदो परोक्षे परदोषवचने रतः । हु वम्भान् उस्सर्ग अतीव । जणजपणोगास लोकापवादास्पदम् । अर्थ-लोक परदोष ग्रहण करने के लिये उत्सुक रहन है, परोक्ष दोष कहने में व आनंदित होते हैं. इस वास्ते हे मुनिगण! जहां आने जानेसे दोपयंसग होगा एसे स्थानोंका और चीजोंका आप न्याग कगे. क्योंकि ऐसी चीजें रखनंस लोफर्म अपकीर्ति होती है. दुर्जनगोष्टी अनर्थमावहत्यहलौकिकमित्येतत्कथयनि अदिसंजदो त्रि दुजणकरण दोसण पाउणइ दोसं ॥ जह घूगकए दोसे हंसो य हओ अपायो वि 11 १५८ ! दुर्जनन कृत दोषे दोपमाप्नोति सज्जनः ।। कादंयः कौशिकनेव योपिकणापदपणः ।। ३५५॥ दर्जनस्थापराधेन पीड्यंते सज्जना जने । अपराधपराचीनाः पृदाकरिव इंडमाः॥ ३५२ ॥ असंयतेन चारित्रं संयतस्यापि लुप्यसे ।। संगसेन समृद्धस्य सर्वस्वमिव दस्युना ॥ ३५३ ।।
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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