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मूलारावना
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परिमाणां ध्या-
संजदजणस्स य जहिं फाविहारो य सुलभक्ती य ॥
तं तं विहरतो पाहिदि सल्लेहणाजोग्गं ॥ १५२ ॥ मासुकं सुलमाहारं संयतेवरीकृतम् || सलेनोचितं क्षेत्रं पश्यत्यनियतस्थितिः ॥ १५४ ॥
विजयोश्या-संजदजण इत्यादिना । असंयमान्हिसादीन्ज्ञात्वा श्रद्धाय च तेभ्य उपरतो व्यावृत्तः सम्यग्यतः संयतः इत्युच्यते तस्य संयतजनस्य । जति यस्मिन्क्षेत्रे फासुविहारो य प्रासु विहरणं जीवबाधारहितं गमनं अपहरितबहुलत्वा प्ररोदककर्दमत्याच्च क्षेत्रस्य । सुलभकुन्ती य सुखेनालेशेन लभ्यते वृत्तिराद्वारो यस्मिन्क्षेत्र । ते खेत्तं तत्क्षे । णाहिदि शास्यत्यात्मनः परस्य चा । सहेद्दणाजोग्गं सम्यक्कायकायतकरणं सल्लेखना तस्या योग्यं । कः विहरन्तो देशांतराणि भ्रमन् ।
क्षेत्रपरिमार्गणामाह -
मूलारा – फामुविद्दारो जीवबाधारहितं गमनं । प्रसरितोदककर्द माधबहुत्वान् । णाहिदि ज्ञास्यति । आनियतविहारी साधूने क्षेत्रका अवलोकन करना चाहिये. इस विषयका विवेचन करते हैं
अर्थ -- असंयमरूप हिंसादि पापोंका स्वरूप जानकर तथा श्रद्धाकर उनसे जो मुनि परावृत्त होते हैं और अपनेको अहिंसादिकोंमें प्रयत्नशील करते हैं उनको संयत-संयमी मुनि कहते हैं, ऐसे संयमी मुनिको प्रासुक विहार करने योग्य क्षेत्रका अवलोकन करना योग्य है. जहां गमन करनेसे जीवोंको बाघा नहीं होगी, जो अस जीव और वनस्पतिओंसे रहित है, जहां बहुत पानी और कीचड नहीं है ऐसा क्षेत्र प्रामुक है. मुनिओकेलिये विहार योग्य है. जिस क्षेत्रमें सुनिओको सुलभतासे आहार मिलेगा वह क्षेत्र अपनेको और अन्य मुनिओको मलेखना योग्य है. शरीर और कषायोको संक्लेश परिणामोंका त्याग कर शाखोक्त विधीके अनुसार कश करना सल्लेखना है. देशांतर में विहार करनेवाले मुनीने इस प्रकार क्षेत्रमार्गणा करनी चाहिये.
आश्वास
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