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________________ मूलाराधना आश्वाम १५४६ विजयोदया- अवसिरियलोप ऊघिस्तियंग्लोकान । चिचिणादि विचारयति । कीदग्भूताग । सपजए सपर्ययान संस्थानसद्वितान् सपर्यायं सभिभुवनं संस्थानविचारविचास्य धर्मध्याने । पत्थच अव । अणुगताओ अनुगताः। अणुपेषखाओ विमनुप्रेक्षा अपि । चिचिणादियिचारयति । अनित्यत्यादिस्वभावविचारं करोति धर्मध्यान इति कथितं भवति। विपाकविचयं व्याचष्टे--- मूलारा-उदयक्रमेण कर्मणोऽनुभवने । उदीरण अक्रमेण कर्मणां मुक्तिः । उक्तं च-- कर्मणां फलदातृस्वं द्रव्यक्षेत्राणि योगतः ॥ उदयं पाकजं ज्ञेयमुदीरणमपाकजम् ॥ ... समुदीर्यानुदीर्णानां स्वल्पीकृत्य स्थिति बलाम् ।। कर्मणामुदयावयां प्रक्षेपणमुदीरण ॥ संक्रमः प्रकृतेः सजातीयप्रकृतिस्वरूपेण परिणमनम् ।। संस्थानविषयं निर्विशति --- महारा--सपन्जए सभेवान् । ससंठाण बेनासनमासरीमृदंगसमानाकारसहितान् । एत्व अप्रैव धर्माध्याने । अणुगायो तरसाधकतममनोनिर्जयांगस्वेन संषताः । तदुक्तम्-- .. संचितयन्मनुपेक्षाः स्वाध्याये नित्यमुखतः ।। जयत्येष मनःसाधुरिन्द्रियार्थपराङ्मुखः ।। अर्थ-जीवोंको पुण्य और पाप कर्मका फलानुभवन संसारमें करना पड़ता है. इन कर्मका उदय, उदीरणा संक्रम, बंध और मोक्षका बारबार विचार करना उसको विपाकविच्य कहते हैं, व्यक्षेत्रादिके आश्रयसे कर्मका योग्य कालमें आत्माको फल मिल जाना उदय कहा जाता है, और उदयमें आनेका जो निश्चित काल था उसके पूर्व ही कर्म अपना फल जीवको देता है उसको उदीरणा कहते हैं. एक कर्मप्रकृति सजातीय कर्म के स्वरूप परिणत होना संक्रमण कहते है. आत्माके प्रत्येक प्रदश पर अनंतानंत कम आकर दूध और पानीके समान आत्म प्रदेशसे मिल जाना पंध है और संपूर्ण कर्म आत्मास अलग होकर आत्मा पूर्ण शुद्ध स्वरूपधारक होता है वह मोक्ष है. इस प्रकार वार २ विचार करना बिपाकत्रिचय है. PATRA careANATA
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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