SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1597
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाराधना जिनके रक्त और वीर्यका आश्रय इम को मिला है उनको यह जीव मातापिता समझने लगता है. तथा जिन्होने उसके समान जिनके रक्तवीर्य का आश्रय लेकर जन्म धारण किया है व उसके भाई है इस प्रकारसे स्वजनता सुलम है, जैसे जंगलमें पक्षिओको रहने के लिये वृक्ष मुलभ है. POSTATUR पहिया उवासये जह तहिं तहिं अल्लियति ते य पुणो । छंडित्ता जति गरा तह णीयसमागमा सव्वे ॥ १७५८ ॥ अध्वनीमा इवैकत्र प्राप्य संग तमोऽगिनः॥ स्थान निजं निजं यन्ति हित्वा कर्मवीकता ॥ १८७॥ विजयोदया-पहिया पधिकाः। उपासये उपाश्रय कमिश्चित् । जब यथा । तहि तहि तस्मिस्तस्मिन् ग्रामनगरादौ । अल्लियंति अन्योन्य दोकते।तेय तेच संगता-पधिकाः। गुगो पक्षात्। उंद्वित्ता त्यक्त्वा। जति यांति स्वामिमतं देश । तथा। णीयसमार्गमा सधे तथा बंधुसमागमा सर्वेपि च ॥ पतेन पंधुसमागमस्थानित्यता व्याख्याता ॥ बंधूनां विघटनद्वारेणान्यत्वं भावयितुमाह मूलारा-उवासए बसेरकस्थाने । तहि प्रामनगगशुपतिपर्तिनि । अल्लियति अन्योन्यं दौकन्ते । तथ पथिकनरसंगमसमा बंधुसमागमा यद्यमी स्वतः पृथक् न स्युः कथं विघटते इत्यनित्यत्यानुप्रेक्षणम् ॥ अर्थ-जैसे किसी एक धर्मशाला में पथिक लोक आकर ठहरते है. तथा किसी ग्राम और नगरमें मिलकर भी जाते हैं पुनः वे पथिक नियुक्त होकर भी इधर उधर अपने इष्ट स्थान को जाते हैं. वैसा ही सर्व बंधुसमागम है. इस गाथासे बंधुसमागमकी अनित्यता स्पष्ट की गई है. घटनद्वारणामागमा सर्वपि च ॥ एतमी पक्षात् । छडित्ता त्याला हि तस्मिस्तरिम भिष्णपयडिम्मि लोए को कस्स सभावदो पिओ होज्ज ॥ कज पडि संबंध वालुयमुट्ठीव जगमिणमो ॥ १७५९ ।। नानाप्रकृतिक लोके कस्य कस्तत्त्वतः प्रियः ।। कार्यमुद्रिश्य संबंधो वालुकामुष्टिवज्जनः ।। १८२८ ।। १५०
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy