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________________ राधना अध्याय भावात्तत्र तयोरन्तर्भावनात् । तत एव चारित्रार्थस्य संक्षेपः । स हि संक्षिप्तायुमतिपलशिष्यानुग्रहाय । स्वल्पस्यो पन्यासो रचनार्थोभयभेदाधा । श्लोकः यत्राल्पोक्त्यानुयोगादिद्वारैरर्थः प्रपंच्यते ॥ संक्षेप उक्तेः सार्थस्य दिएमात्रक्रुिदघणुयोः ।। सम्म सम्मि तत्वश्रद्धानविषये इत्यर्थः । पढमा सम्यक्त्वाराधनायो सत्यामेव मानाराधनापूर्वकत्वेन चारित्राराधनायाः संभवात् ।। क्या आराधनाके चार ही भेद है । इस प्रश्नका उत्तर आचार्य देते है-- हिंदी-जिनागममें संक्षेपसे आराधनाके दो भेद कहे हैं। एक सम्यक्त्वमें आराधना अर्थात् सम्यक्त्वाराधना तथा दूसरी चारित्र में आराधना अर्थात् चारित्राराधना. विशेष-आधरण व मोहको जीतनेसे अईपरमेष्टिको जिन कहते हैं. ज्ञानावरण व दर्शनावरण कर्मको जीवनसे वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हुये है. मोहनीय कर्मको परास्त करनेसे वे रागद्वेष रहित हो चुके हैं. अर्थात् सर्वश, सर्वदर्शी, रागद्वेष रहित ऐसे अर्हत्परमदेवके बचनको जिनवचन कहते हैं. जिनेश्वरके वचनमें असत्य वचनके कारण नहीं पाये जाते हैं अतः उनका वचन अर्थात जिनागम प्रमाण है। वक्ता यदि अज्ञानी अथवा रागदेषयुक्त हो तो उससे निकला हुवा वचन असत्यवस्तूका वर्णन करनेवाला होनेसे ममाण नहीं है. ममागरूप जिनागममें संक्षेपसे आराधनाके दो मेद कहे हैं. प्रधानको विषय करनेवाली पहिली आराधना है तथा दूसरी आराधना चारित्रको विषय करती है। दर्शनाराधना और चारित्राराधना को क्रमसे प्रथम तथा दूसरी आराधना ऐसे नाम उत्पसि की अपेक्षासे तथा गुणस्थानों की अपेक्षासे प्राप्त हुए हैं. आत्मा प्रथम सम्पग्दर्शन परिणामसे परिणत होता है तदनंतर उत्तरकालमें उसमें चारित्र परिणाम उत्पन्न होता है. अतः दर्शनाराधना प्रथम कही है. असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान प्रथम हो जाता है, नंतर प्रमत्तसंयतादिक गुणस्थान आत्माको प्राप्त होते हैं ऐसा कोई विद्वान् कहते हैं। श्रद्धान तथा विरति परिणामोंकी युगपत्कालमें-एकसमयमें भी उत्पत्ति होती है अर्थात् सम्यग्दर्शन और चारित्र परिणाम एककालमें भी उत्पन्न होते हैं. अथवा श्रद्धानवान् जीवको पश्चात् भी विरतिपरिणाम हो जाते है।
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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