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________________ मूलाराधना आश्वासा १३२९ कयमेष सारथितन्य इत्यत्राहमूलारा--संपदि काले । इदानीकालः किमयं विषा रात्रिर्वा ।। सारणोपाय कहते हैं अर्थ-हे मुने! तुम कोन हो! तुझारा नाम क्या है ? तुम कहां रहते हो? अब कोनसा काल है अर्थात् | अम दिवस है या रात्री है ! तुम क्या कार्य करते हो और कैसे रहते हो? मेरा नाम क्या है? HEREPRENER एवं आउच्छित्ता परिक्खहेर्दू गणी तयं खवयं ॥ सारद बस्छल्लयाए तासगरी करिव १५०६ ॥ इत्थं क्षपकमापृचव्य चित्तं जिज्ञासता सता !! बत्सलत्वेन कर्तव्या सारणा तस्य सरिणा ॥ १५६६ ॥' विजयोदया- आइच्छित्ता एवमनुपरत पारयति गली नं क्षय । किं मन्ननो निश्वननति परीक्षितु. फामः बन्सलसया यद्यस्ति बतना कवन करिप्पामीन मल्या । किमर्थ मेघ सार्यते इत्यत्राह मूलारा-अब्बोच्छिणणं अनुपरनं । आपुच्छित्ता इति प्राधिकः पाठः । परिक्षाहेटुं किमयं सचेतन उन निअतन इति परीक्षणार्थ । सारेदि स्मृति प्रापयति । वच्छलदाए वात्सल्येन । कवचं करिस्मति यद्यस्ति चेतनास्य तदा कर करिष्यामीति मत्वा ।। अर्थ--यह क्षपक सचेतन है अथवा अचेतन है अर्थात् यह सावधान है किंवा असावध है इसका परीक्षण करने के लिये बड़े प्रेमसे उपर्युक्त प्रश्न वारवार उसकी पूलते हैं. यदि इसमें चेतना होगी अर्थात् यह सावध होगा तो मेरे पूछे हुए पन्नोंका उत्तर देगा. और सावध ई ऐसा सिद्ध होनेपर इसको हम कवच करेंगे ऐसा हेतु मनमें धारण कर आचार्य उपयुक्त प्रश्न क्षपकको करते हैं. जो पुण एवं ण करिज्ज सारणं तस्स वियलचक्खुस्स ॥ सो तेण होइ णिइंधसेण खवओ परिचत्तोः॥ १५.७ ॥
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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