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आचारः
मूलाराधना
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विजयोदया-आलोयणाए आलोचनायाः शुचिः शय्यासंस्तरयोः या शुद्धिः, उपकरणशुशिः, भक्तपानशुद्धिः, वैयारयकरण शुचिरिति एंविधा | मायामृषारहितता आलोचनाशुचिः । मनोगतवकता माया | व्यालीकता चासौ मृषा । मायाकषायः स च परिग्रहः चत्तारि तह कसाया' इति वचनात् । मृषा कथं परिग्रहः इति चेत् उपधीयते अनेमे त्युपधिरिति शब्दव्युत्पत्ती उपधीयते उपादीयते कर्म अनेन व्यस्ली कनेत्युपधिरित्युच्यते । यत्र यस्यादरः कहती तत्सर्वमुपधिरवेति भावः । उगमोत्पादनैपणादोषरहितता ममेदं इत्यपरिग्राह्यता च बसतिसस्तरयोः सुजिस्तामुपगन्न उमाविबोपोपहनयोसतिसंस्तग्योम्यागः कृत पति भवत्युपधित्ययः । उपकरणादीनामपि उद्गमादिरहितता शुद्धिस्तस्य सत्य जनमादिदोपदुष्टानां असंयमसाधनामां ममद भावमूलानां परिग्रहाणं त्यागोऽस्त्येव । संयतयावृत्त्यक्रमशता वैधावत्यकारिशुद्धिः सत्यां तस्यां असंयता अफमज्ञाश्च न मम यावृस्यफरा इति स्वीक्रियमाणास्त्यक्ता भवति ।
Fगा द्विारिका -
मूलारा-मायास्पारहितता अलोचनायाः शुद्धिः । उद्भादिदोषरहितत्वं ममेदमित्यपरियाह्यता च वसति संस्तरोपक्रमणादीनां । संयत्तत्य क्रमज्ञता च वयावृत्त्यकराणां । मायादित्यागश्चांतरंगसंगत्याग एव ।
अर्थ----आलोचनाकी शुद्धि, शय्या और संस्तरकी शुद्धि, उपकरणोंकी शुद्धि, भक्तपानशुद्धि, धैय्यावृत्यकरण शुद्धि ऐसी शुद्धि पांच प्रकारकी हूँ,
आलोचना शुद्धि, माया और असत्यभाषणका त्याग करना यह आलोचनाशुद्धि है. मनमें कपट विचार रहना यह माया है. असत्य भाषणको मृषा कहते हैं. माया यह एक कपाय है और वह परिग्रह है. * चत्तारि तह कसाया । इस पचनसे मायामें कषायपना 'सिद्ध है. असत्य भाषणको परिग्रह कैसे समझना ? उत्तर-असत्य भाषण भी उपधि-परिग्रह है क्योंकि 'उपधीयते उपादीयते कर्म अनेन व्यलीकेनेत्युपधिरित्युच्यते' इस असत्य भाषणसे कर्मग्रहण होता है अतः इसको भी उपधि परिग्रहऐसा नाम अन्वर्थक है. कर्मग्रणको कारणभूत जिस पदार्थमें जिसका आदर है वह सर्व उसके लिये उपधि ही है.
वसतिसंस्तर शुद्धि-उद्गम, उत्पादन, एषणा दोषोंसे रहित होकर यह मेरा है ऐसा भाव बसतिका में और संस्तरमें होना यह वसतिसंस्तर शुद्धि है, इस शुद्धिको जिसने धारण किया है उसने उद्धम उत्पादनादिदोष युक्त वसतिका और संस्तरका त्याग किया है ऐसा समझना चाहिये. इसलिये इसमें भी उपधित्याग सिद्ध हुआ है. पिछीकमहलु बगैर उपकरण भी उदमादिदोषरहित हो तो वे शुद्ध हैं. उन्मादि दोषसे अशुद्ध उपकरण असंयमके
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