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मूलाराधना
आचा
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| आश्रय न लेकरही जो साधु मरते हैं वे समाधिको प्राप्त होते नहीं है,
'पंचविई जे सुाद' इत्यादि मूत्रसे कोनसा विषय आचार्य कहते हैं ? पूर्वमें न कहा हुआ विपय दिखाते हैं क्या? इसका उत्तर आचार्य देते हैं. योग्यका ग्रहण करना ही अयोग्यका त्याग है. अतः आगेके मुत्रोंसे भी परिग्रह त्यागका ही वर्णन किया है ऐसा समझना.
पंचविह जे साई पत्ता णिखिलण णिश्चिदीया ।। पंचविहं च विवेगं ते हु समाधि परमुवेंति ॥ १६५ ।।
शुद्धिं ये पंचधा प्राप्ता ये विवेकं च पंचधा॥
सर्वत्र निश्चितस्वान्ताः समाधिमुपयान्तिले ॥१६७॥ विजयोदया-के समाधं प्राप्नुपतीत्यत्र माह-पंचयि पंचविधा जे सति पता ये आदि प्राप्ताः । णिखिलेण साफल्येन । णिजिष्यमांगा निश्चितमतयः । एचविहं पंचविधं च बिथेगं विवेक तेहु समाहि.परमुर्वेति । ते स्फुटं समाधि परमुपयांति।
मूलारा-णिखिलेण साकल्येन ।
अर्थ-समाधि किनको प्राप्त होती है इसका उत्तर आचार्य महाराजने इस गाथामें दिया है-जो साधु पूर्णतया निश्चित मतिको प्राप्त हो गये है अर्थात शरीरत्याग करनेका जिन्होंने दृढ निश्चय किया है, जिन्होंने पांच प्रकारकी शुद्धिका और पांच प्रकारके विवेकका आश्रय किया है समाधिको प्राप्त होते हैं. उपाधिका यदि त्याग न किया हो तो समाधिकी-मनकी एकाग्रताकी प्राप्ति नहीं होती है.
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का पपा पंचाधधा शुद्धिग्त्यिाह
आलोयणाए सेज्जासंथारुचहीण भत्तपाणस्स ।। वेजावञ्चकराण य सुद्धी खलु पंचहा होइ ॥ १६६ ॥ शुद्धिरालोचना शय्या संस्तरोपधिगामिनी ॥ वैयावृत्यकराहारपानजाता च पंचधा ॥ १६८।।