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________________ काराधना आश्वासः महर परिकर्म यत्र तं च । दो वि द्वायपि वज्बेदि वर्जयति मनोवाशायैः । सेज्मासंधारादी वसतिसंस्तरादिकं । उस्समापद उत्सर्जन त्यागः तदेव पर्व । परिमइत्यागपदान्वेषणकारीति यावत् । गाथाद्वयेनातिक्रांतेन द्रव्योपधित्यागो व्याख्यातः। इयता परिसमाप्तः परिग्रहत्यागः। मूलारा-परियम्म निरीक्षणप्रमार्जनविधूननादिकम् । उस्सग्गपदं परिग्रहपरित्यागस्थानं । संस्तर वगैरह त्याज्य है ऐसा नहीं कहा होगा ऐसी शंका की जाने पर आचार्य उनके त्यागका उपदेश HARSATTA अ-जिसमे अल्प परिकम है अर्थात् निरीक्षण करना, स्वच्छ करना, झटकना इत्यादि किया जिसमें थोडी करनी पड़ती है और जिसमें उपर्युक्त क्रिया अधिक करनी पड़ती है ऐसे दो प्रकारके भी परिग्रह मन, वचन और कायसे साधु त्यागते हैं. क्योंकि परिग्रहत्यागका वे अन्वेषण करनेमें तत्पर रहते हैं. इस लिये वसतिका और शय्याका भी त्याग ये करते हैं. पंचविहं जे सुद्धि अपाविदूण मरणभुवणमन्ति ॥ पंचविहं च विवेग ते खु समाधि ण पावेन्ति ॥ १६ ॥ औत्सर्गिकपदान्वेषी शय्यासंस्तरकादिकम् ॥ पंचधा शुद्धिमप्राप्य ये बियेकं च पंचधा ॥ १६६ ॥ विपयंसे समाधि ते लभते न विमोहिनः । विजयोदया-पंचविहं जे मुदि इत्यादिना कि प्रतिपाद्यते पूर्वमसूचितमिति । अत्रोच्यत-योग्योपादनमेवायोग्यत्यागस्तत्परिदार इत्युपधिस्याग एवाख्यायते उत्तरग्रंथेनापि ॥ पंचविहं पंचप्रकारां। सुखि शुदि । अपाविदूण अप्राप्य । जेये । मरणं मृति । उवणमंति प्राप्नुचंति । पंचविई च विवेग विवेकं परिहरणं पृथग्मावं अमाप्य मृतिमुपयान्ति। खु शब्द पचकारार्थः स च कियापदापरतो योज्यः । समाधिन प्राप्नुवत्येवेति । उपधिपरित्यागाभावे समाध्यभायो दोष आख्यातः । गृलारा-सुद्धिं नमस्य । उधणमति प्राप्नुवति । विवेगं पृथग्भावं । अन्ययेनाह-- अर्थ-पांच तरह की शुद्धिको प्राप्त न करके जो साधु मरण करते हैं, तथा पांच प्रकारके विवेककाभी ४८
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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