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पूनाराधना
आवास
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यह साधुसेवा संसारका नाश करती है, क्रोधादि अशुभपरिणामोंका उपशम करके ज्ञानको चढ़ाती है, साधुसेवासे पुण्य और यश बढते हैं.
सत्पुरुषांका एक बार दर्शन भी हुआ तो यह भी संसारका नाश करनेमे कारण होता है. तो उनकी सेवा करनेकी योग्यता मिलनेपर यदि हमने उनकी सेवा की तो उससे हमारे संसारका नाश होने में क्या दर लगेगी?
यदि सज्जनोंकी सेवा हम नहीं करेंगे तो हमको ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होगी. ज्ञानके पिना द्रमको हिरा करनेवाले देवपूजा, स्वाध्याय बगैरह काँका स्वरूप ज्ञात नहीं होता है, अतः मोक्षकी प्राप्ति होती नहों.
साधुओंकी उपासना करनेसे यदि परम्परासे भी मोक्षकी प्राप्ति होती है तो साधुओंकी सेवा करनेवाले मनुष्योंकी क्या हानि और श्रम होगा -१ अर्थात् मोक्षप्राप्ति के समान जगतमें दूसरा अनुपम लाम है ही नहीं अतः मनुष्यने साधुओंकी सेवा श्रमकी परवा न कर करनी चाहिए.
मोक्षप्राप्तिके इच्छुक विद्वान लोग अवश्य साधूका आश्रय करें, क्योंकि माधु पुरुष आश्रितजनाको आनन्दसे अक्षय मोक्ष अर्पण करते हैं,
अभिमान और मोह दूरकर इह पर लोकमें हितको चाहनेवाले मनुष्य सतत मत्पुरुषको विनयले मेत्रा करें, क्योंकि, जगतमें सन्युरुप तपरूपी वैभवसे युक्त होने है. अर्थात महान पम्पोजनाकी सेवा अवश्य करना चाहिए,
दैवयोगसे मुनि सहवास प्राप्त भी हुआ परन्तु उनसे हमने हितका उपदेश नहीं सुना तो उनके सहवास का फायदा हमने नहीं लिया ऐसा ही समझना चाहिए, यदि हमने खेतमें बीज नहीं बोया और वृष्टि हुई तो उस वृष्टि से कुछ फायदा नहीं है. वैसे सत्पुरुषका उपदेश हमने सुना नहीं तो उनका सहवास व्यर्थ ही हुआ ऐसा समझना चाहिए. यतीश्वरके समीप जाकर हम यदि उनका हितोपदेश सुनेंगे तो यतिसमागम सफल हुआ ऐसा समझना चाहिए. इसलिए हितोपदेश सुनना दर्लभ है ऐसा आचार्य कहते हैं.
सत्पुरुषोंका उपदेश सुनने के लिए जाकर भी कोई वहां सोते है, अथवा अपने पास बैठे हुए मनुष्य के साथ बातालाप करते हैं अथवा उनका वचन सुनते हैं सत्पुरुषके उपदेशक तरफ उनका लक्ष्य नहीं जाता. प्रगट किये धर्मके माहात्म्यपर मोहनीय कर्मके उदयसे उनकी अरुचि हो जाती है.