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________________ RRBT मूलाराधना आश्वास कापालिक किये जाते हैं. अर्थात् हाथ में कपालपात्र लेकर मिक्षार्थ भ्रमण करने लगते हैं. अर्थात् का त्याग कर जो वनमें जाते हैं उनकी ऐसी दुर्दशा होती हैं. और जो उसकी आज्ञा शिरोधार्य समझकर प्रवृत्ति रखते हैं. उनको यहां ही स्वर्ग और मोक्षका सुख मिलता है. और भी इस विषयमें कोई विद्वान् एसा कहते हैं पानीका बबूला जैसा श्रण के बाद पूर्ण नष्ट होता है. जीव भी देहका नाश होनेपर विनष्ट होते हैं. परलोकको प्रयाण करनेवाला आत्मारी नहीं है. दो साटोकळी सिद्धि कैसी होगी ? अर्थात् जीवनामक पदार्थ नहीं है. इस लिये परलोकका भी अभाव है. एसे और इसके सदृश और भी विचार युद्धी दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे उत्पन्न होजाते हैं. जीयों में बुद्धि तो होती है. परंतु उसने कुमार्गका आश्रय लिया है. जीवोंको यथार्थ रत्नत्रयमार्ग दिखलाने वाले सदगुरुओंका संसर्ग मिलना बड़ा ही कठिण हो रहा है... यतिजन अर्थात् सद्गुरू यथार्थ ज्ञानरूपी नेत्रके धारक है. संपूर्ण माणिों में वे दया करते हैं. ये लाभ की, गकारपुरस्कार की अपेक्षा नहीं करते हैं. चतुर्गतिओंमें संसारीजन हजागे यातनायें भाग रहे हैं यह देखकर उनके अंतःकरणसे दयाका प्रवाह रहता है. " अहो ये अज्ञजन मिथ्यादर्शनादि अशुभ परिणामोंसे अशुभगतिको उत्पन्न करनेवाले कर्माका बंध कर रहे हैं इन कर्मोसे छूटनेका उपाय ये लोक जानते नहीं है. इससे ही ये दीन प्राणी अपार दुःखरूपी समुद्र में प्रवेश कर दुःख भोग रहे है " ऐसा विचार सद्गुरु मनमें करते हैं. ऐसे सद्गुरुका संसर्ग होना दुर्लभ है. दर्शनमोहनीय कर्म और ज्ञानाघरणीय कर्मका उदय होनेसे लोक यतीके गुणोंको जानते नहीं और उनके ऊपर श्रद्धान भी करने नहीं. इसी लिये उनके पास वे जाते नहीं. जबतक सत्गुणोंका स्वरूप नहीं जाना जाता है तबतक उसका स्वीकार करने की प्रवृत्ति लोकॉम नहीं दीखती है, चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे प्राणीकी हिंसा लोक स्वयं करते हैं, करवान है और अनुमोदन देते हैं. हिंसादिक कार्योको करनेवाले लोकों में प्रीति रखते हैं. जो हिमादि अकायोंको नहीं करने देते है उनमें लोक प्रेम करते नहीं. जब मनमें अहिंसादिक गुणयुक्तोंपर प्रेमही नहीं तो उनमें संसर्ग और उनकी सेवा कैसी होगी ? ANS.ORMATION
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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