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पृलाराधना
आभासः
यह सम्यग्दर्शन जीवोंको अर्पण करता है. और अन्त में यह जविको मोक्ष भी प्रदान करता है. अतः दुःखरूपी जल जिसमें बहता है ऐसी मिथ्यादर्शनरूपी नदीको तू लांघकर जैनधर्मको धारण कर "ऐसे उपदेशस मिथ्यादर्शनसे हटा कर लोकोंको जनधर्ममें स्थिर करना चाहिये, यह भी स्थितीकरण है,
जो भव्य सम्यग्ज्ञानकी आराधना करने में प्रमादी और अलसी बन गया है उसको सम्यग्ज्ञानमें आगे लिखे हुए वचनोंसे स्थिर करना चाहिये-जान ही हित और अहितका स्वरूप दिखानेमें प्रवीण है. बिना ज्ञानके मनुष्योंको हित और उसके उपायोंका स्वरूप अवगत नहीं होता है. इसलिये वह अहितसे हटकर हितमें प्रवृत्ति नहीं कर सकेगा. जबतक जीच हितकी प्राप्ति और अहितका परिहार न करेगा तबतक उसको सुख न मिलेगा और वह दुःखोंसे मुक्त न होगा. सर्व विद्वान लोक सुखकी प्राप्तिक लिये और दुःख दूर करनेके लिये ही प्रयत्न करत है. सुख प्राप्ती के लिये हे भव्य ! तूं पांच प्रकारका स्वाध्याय कर, उसका त्याग करनेसे तेरी आत्मोअति नहीं होगी, एस उपदेशसे उसको सम्यग्ज्ञानमें स्थिर करना चाहिये, अथवा जिसको आगमके सूत्रार्थका निधय नहीं हुवा हो तो उसको उसका परिचान कर देना चाहिये.
सम्यग्ज्ञानका बारधार अभ्यास करके स्वतः भो उसमें स्थिर होना चाहिये. चारित्रसे भ्रर होते हुए भव्यको देखकर उसमें उसको स्थिर करने के लिये यह उपदश उपयुक्त है
हिंसा, चोरी, असत्य बोलना इत्यादि पापोंमें जो मनुष्य प्रवृत्त होते हैं उनको इस लोकमेंही बहुत दुःख भोगने पड़ते हैं. दुसरोंको मारनेका प्रयत्न करनेवाला मनुष्य स्वयं दुसरोंसे मारा जाता है, जो पूर्वकाल में उसके मित्र अथवा संबंधी थे वे भी उसके वैरी बनने हैं. पाप करनेवाले मनुष्य मरकर अशुभ गतिको अपनाते हैं. पापाने असाता वेदनीय कर्म बंधता है.
जो अदमी झूट बोलते हैं उनके बंधगण भी शत्रु बनते है. वे भी उसके ऊपर विश्वास नहीं रखते हैं.. फिर दुसरे शत्रु अविश्वास रखनेवाले होंगे इसमें आश्चर्यही क्या है, असत्य बोलनेवालकी जिला क्रुद्ध बलिष्ट लोक उखाड देते हैं. झूट बोलनेका फल यह है कि वे परलोकमें गूंगे हो जाते हैं. इस तरहसे असंयमके दोष बतलाकर हिंसादिक पाप न करनेवाले भन्यगण नीरोग, दीर्घजीवी, सुंदर, प्रिय और मधुरभाषी होते हैं. प्रिय वचनादिक गुण उनको प्राप्त होते हैं. ऐसा उपदेश करना चाहिये.