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लारापना
आश्वासः
जो जिसका धर्म होता है वह उसी वस्तुका स्वरूप है ऐसा समझना चाहिये, एक वस्तुका धर्म उस वस्तुसे | मिन्न ऐसे अन्य वस्तुका धर्म नहीं हो सकता, बगुलाका सफेदपना कुंद पुष्पका नहीं होता है, इसी तरहसे मति ज्ञानको प्रसन्नता उसकीही होती है वह श्रुतादि शानकी नहीं होती है. श्रुतादि ज्ञानकी प्रसन्नता मतिज्ञानकी नहीं होती है. अतः ज्ञानमें भिन्नता होनेसे उनमें रहनेवाली प्रसन्नतायें भी भिन्न भिन्नही माननी पडेगी. सम्यग्दर्शन शायोपशमका धर्म मानोगे तो थायिक सम्यग्दर्शनको सिद्धि नहीं होगी वह नया न उत्पन्न होगा न विनाश पावेगा.
दर्शनमोहनीय कर्मके उदय बिना सम्यग्दर्शनका अभाव नहीं होता है, यदि होगा तो दर्शनमोहनीय कर्मकी कल्पना व्यर्थ हो जाती है.
पदार्थके यथार्थ विषयपर जो श्रद्धा होती है उसको सम्यग्दर्शन कहते है. वह प्रतिबंधक कारण उपस्थित होने पर उत्पन्न नहीं होता है. यदि उसका विनाश हो तो वह उत्पन्न होता है. यदि प्रतिबंधक कारण कोइ न होगा और आत्मा सदा परिणमनयुक्त है ऐसा कहोगे तो सम्यग्दर्शन हमेशा क्यों न उत्पन्न होता है? यदि आत्मा परिणमनशील नाहीं है तो कमी भी आत्मामें सम्यग्दर्शन न होगा. अतः सहकारिकारणोंका सानिध्य न होनेसे आत्मा सम्यग्दर्शनरूप परिणत नहीं होता है. उसको जगतमें कोई भी प्रतिबंधक कारण नहीं हैं ऐसा यदि कहोगे तो यह युक्ति संगत नहीं है. ऐसा कोनसा सहकारिकारण है कि जिसके न होनेसे श्रद्धाकी उत्पत्ति नहीं होती है । अर्थात् जिस सहकारिकारयाके सद्भावसे श्रद्धा उत्पन्न होती है तथा जिसके न होनेसे उत्पन्न नहीं होती. ऐसा कोनसा सहकारिकारण है ? जगतमें पदार्थका संपूर्ण कार्यकारणभाव अन्वय व्यतिरेकसे जाना जाता · | है. अन्वयध्यातिरेकके विना कोई पदार्थ किसीका कारण मानना केवल प्रतिज्ञामात्र ही है. ऐसी प्रतिमा वस्तुके विचार समयमें कुछ भी उपयोगी नहीं है.
आगममें प्रतिबंधक कारणले कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती है ऐसा खुलासा है. जैसे सहकारिकारण नहीं होनेसे कार्यसिद्धि नहीं होती वैसे प्रतिबंधकका सद्भाव होनेसे भी कार्य होता नहीं. सहकारिकारण होते हुए प्रतिबंधककारणोंका अभाव होगा तो कार्य उत्पन्न होता है अन्यथा नहीं होगा. अतः प्रतिबंधकके सद्भाबमें कार्य नहीं होता है यह मानना पडेगा.
· श्रुतमानसे जाने गये पदार्थोंपर ये पदार्थ सत्य है ऐसी अद्धा होना उसको ही सम्यग्दर्शन कहते है ऐसा
ॐ