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________________ .--. - मूलाराधना आश्वासः आश्रयं स्वजनं मित्रं दराचारो मलिम्लचः ॥ सर्च पासयते दोपे दुष्षमे दुर्यशस्यपि ।। ८७७ ॥ विजयोदया--सया मित्तं बंधून्मित्रापि आश्रयभूतं समीपस्थं च महति दोघे बंधवधधनापरणादिके पातपति चौर्य । महस्ययशसि दसे च निपातयति । अर्थ-चोरके जा स्वजन, मित्र, और आश्रयस रहनवालं अन्य लागांको भी यह चारी बढे संकटमें गिरा देती है. अर्थात् चोरके साथ उसके स्वजन मित्रादिकाकाभी लोक बांधते हैं, उनके अवयव तोडते हैं, उनका धन छीन लेते है. बही अपकीर्ति और दुःखमें गिराते है. बंधवधजादणाओ छायाघादपरिभवक्वयं सोयं ।। पावदि चोरो सयमवि मरणं सब्वस्सहरणं बा ॥८६७ ॥ यचं बंधं भर्य रोधं सर्वस्वहरणं, मृतिम् ।। विषादं यातना लोके तस्करो लभते स्वयम् ॥ ८७८ ।। विजयोक्या-धंधवधजावणाभो बंध, धध, यातनान, हायाघात, परिभयं, भयं, शोक प्रामोति । स्वयमपि बोरो मरणं सर्वस्वहरणं या ॥ अर्थ-अवयव तोहना, बांधना, अनेक प्रकारसे पीडा देना, पराभव करना इत्यादिक प्रकारोंसे लोक चोरोंको तकलीफ देते हैं. शोक, सर्वस्वहरण और मरण इन दुःखोंको चोर प्राप्त होता है. णिचं दिया य रत्तिं च संकमाणो ण णिहमुवलभदि ॥ ते तओ समता उब्बिग्गमओ य मिच्छतो ॥ ८६८ ॥ शंकमानमनर निद्रा तस्करी जातु नाश्ते ॥ कुरंग इव वित्रस्तो वीक्षले सकला दिशः ॥ ८७९ ॥ विजयोदया-णि दिया व रति च संझमागो नित्यं दिवारात्रि शंकामानः न निद्रामुपलमते चौरः । समंता. प्रेक्षत उद्विग्नहरिण इव ।। Ganpam
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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