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मूलाराधना
आम
कतर्दि फार्थ नित्यस्योत्तरमाच
पंचेंदियप्पयारो मणसंखोभकरणो जहिं पत्थि ॥ चिदि तहिं तिगुत्तो उझाणेण सुहप्पवत्तेण ॥ ६३५ ॥ पंचाक्षयसरी यस वियतन कदाचन ।।
धिगुमा धमनी वस्या शुभध्यानावतियने ।। ६५० ।। विमोदया-विषाया। पंचानामिद्रियाणा स्वविषयाभिमुयनावपत् प्रकृऐ गमन । जहिं यस्यों भरती नास्ति। कीरनिद्रियाचा मप.स.वं. मगर क्षाभकारी। ताहितरयां वसती चिट्ठदि तिमृति । तिगुत्तो ऋतमनीषाकायसंरक्षक झागाध्यानेन सह पनत्तण सखावृत्तन।
कताई कथंभूतः सन् क्षपकस्तिनतीत्यत्राह
मूलारा-पयारो प्रचारः स्वस्वस्पियाभिमुख्यनादरात्प्रकृष्टं गमनं ग्रहणाय प्रवृत्तिः । चिट्टदि तिवनि । सुहप्पवतेण सुखेनानायासेन प्रवर्तमानेन ।
क्षपक मुनि कहां और कसेर ने है इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं---
अर्थ- जना रहने से मुनियों की मिना अपने अपने विषयों के तरफ न दौडगी. जहां रहनेने मनकी कावा नष्ट न होगी एसे स्थान अर्थात एसी वसतिकामें त्रिगुनिधारक मुनि निवास करते हैं, जिसमें रहनस ध्यान में निवित्रता होगी वह यसतिका मुगिनिवास के लिये योग्य है..
मनःसंक्षोभदंतुः पंचानामिष्ट्रियाणां प्रचारो यस्यां बसतो नास्ति तस्यां सर्यस्यां तिष्ठति न येत्याचऐ--
उग्गमउम्पादणएसणाविसुद्धाए अकिरियाए हु॥ . बसइ असंसताए णिप्पाहुडियाए सेवाए ॥ ६३६॥ उद्गमादिमलापोदा समकाशा गतक्रिया ।।
संस्कार करणायांच्या संम्मुर्छनविजिता ॥ ६६० ।। विजयोदया उगम इप्पादणपसमावि मुद्धाप उद्मोत्पावनैषणादोषरहितायां । अफिरिसाए हु आत्मना उप