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________________ मूलाराधना आश्वासः अर्थ--मन, वचन,और शरीर इन तनि योगोंसे जो आत्मस्वरूपमें स्थिर हुए हैं. अर्थात् चारित्र में जो तत्पर रहते हैं. जो धर्मभ्यान तथा , प्रथम अथवा दुसरे शुक्लभ्यनमें तत्पर होगये हैं. इय मझिममाराधणमणुपालित्ता सरीरयं हिचा । हुति अणुत्तरवासी देवा सुविसुद्धलेस्सा य ॥ १९३३ ।। विधायाराधनां देवीं मध्यमां मुक्तविग्रहाः ॥ शद्धलेश्यान्विता देवाः सन्त्यनुत्तरवासिनः । २०१४ ॥ विनोकर.- पिसम नामनुपाल्य शरीरं त्यक्त्वा विशुद्धलेण्याघरा अनुसरयासिनो खेवा भवति॥ मूलारा-हिचा त्यक्त्वा । अणुत्तरवासी पंचानुत्तरवासिनः ॥ अर्थ-इस प्रकार मध्यमाराधनाका पालनकर शरीरका त्याग करनेवाले मुनिराज विशुद्धलेश्याको धारण कर अर्थात् उत्कृष्ट शुक्ललेश्याके स्वामी बनकर अनुत्तरवासी देवों में उत्पन्न होते हैं. दसणणाणचरिते उक्किट्ठा उत्तमोपधाणा य ॥ इरियावहपडिवण्णा हवंति लवसत्तमा देवा ॥ १९३४ ॥ ..विजयोदया-वसणणाणचरिसे सम्यग्दर्शनशानचारित्रे प्रकश उत्तमाभिग्रहा ईर्यापथं प्रपन्ना लयस तमा देवा भवति । मूलारा-उठिा कल्पोपपाविरत्नत्रयाराधकेभ्य उत्कृष्टाः । उत्तमोपधाणा प्रधानाभिमहाः । इरियावहपडिवणा तद्योग्य सुकृतकारणशुभाम्प्रचाश्रिताः । लवमत्तमा अहमिंद्राः । मैवेयकानुविशषिमानवासिन इत्यर्थः ॥ अर्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पचारित्र पालने में पूर्ण दक्ष अर्थात कल्पोपपत्र देवों में जिस रलय से जन्म होता है उससे भी उत्कृष्ट रत्नत्रयको धारण करनेयाले, उत्कृष्ट तप, ध्यान वगैरह नियमोंके धारक इर्यापथको जिन्होने प्राप्त किया है अर्थात कल्पातीत देवत्व पात होने के लिये योग्य ऐसे शुभासवको जो प्राप्त हो गये हैं ऐसे मुनिराज लवसत्तम देव होते है अर्थात् मरकर गंधक, अनुदिशविमानमें रहनेवाले देव हो जाते है।
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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