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मूलाराधना
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आलोचना के दोषों का यहां तक वर्णन किया. अब गुरूके आगे आलोचना करते समय स्वतः की निंदा
करनी चाहिये.
परिहार्यालोचनादोषानुक्त्वा गुरुसकाशे आलोचनानिंदना गुप्यनीतिकदावी व मणुसो आलोयणदिओ गुरुरायासे ||
होदि अचिरेण लहुओ उरुहियभारोव भारवहो ॥ ६१५ ॥ मनुष्यः कृतपापोऽपि कृतालोचननिंदनः ||
संपद्यते लघुः सद्यो विभासे मावानिः ॥ ६३८ ॥
विजयोदया - पावो वि मस्सो कृतपापोऽपि मनुष्यः समर्जिताशुभकर्म संचयोऽपि रथः | अथवा पस्याशुभकर्मणः कारणभूताऽसंयमादिरिह पापशब्देनोच्यते, तेनायमर्थः कदपावोऽवि कृतासंगमादि डा। आलोय दिओ कुतालोचनः कृतनिश्विक गुरुसया से गुरुसमीपे । होदि भवति । अचिरेण बहुओ लघुतमः । उदयिमारोग्य भवतारितभार इव भारवहो भारस्य घोडा ॥
एवं दोषानुक्त्या गुणान्वक्तमालोचनानिंदामाहात्म्य म्राद्द---
मूलारा - आलोयदिओ तालोचनः कृतनिंदना । उहुगो दोषशुद्धः । एतेन गुणा निरूपिता दोषविपर्य यरूपत्वात्तेषां । उरुदिभारोष्य अवतारितभार इव ।
निंदाका माहत्म्य आचार्य कहते हैं
अथ - अशुभकर्मका संचय जिसने किया है ऐसा भी मनुष्य यदि गुरु के समीप आलोचना और अपनी निंदा करेगा तो बहोत बोझा मस्तकपर से उतर जानेपर भारवाही मनुष्य जैसा सुखी होता है वैसा शीघ्र सुखी होता है. अथवा पापके अशुभकर्मके कारणभूत असंयमादिक को भी पाप कहते हैं. इसलिये यहाँ दुसरा अर्थ इस प्रकार समझना चाहिये - जिसने असंयमाचरण किया है वह भी मनुष्य गुरुकं समीप जाकर दीपांकी आलोचना और निंदा करेगा तो भारवाही मनुष्य भार उत्तरनेसे जैसा सुखी होता है वैसा मुखी होता है.
आश्वासः
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