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________________ Parenese मूलाराधना आश्वास भावशुद्धार्थी आलोचना असल्या भावशुद्धौ को या दोष इत्याह सुबहुस्सुदा वि संना जे मूढा सीलसंजमगुणेसु ॥ ण उति भावमुद्धिं ते दुक्वणिहेलणा होति ॥ ६१६ ॥ भावशुद्धिं न कुर्वन्ति भवन्तोऽपि यहुश्रुताः ॥ चतुरंग विमुढा ग दुःग्नपीडया भवन्ति ते ।। ६३५ ।। विजयादया-सुग्रहमचा वि संवा राष्ट्र बनुश्रुता अपि सन्तः । जे मूढा ये मूढाः । सीलसंजमगुणेसु शीले क्षमारिके धर्म, संयमे, यंतषु गुणेषु मानदर्शनतपास च । मावसुदि परिणामेन शुद्धि । ण उधेति नोपयांतित दुक्खणि हेलणा दुनिष्णीच्या | हानि भवति । भावशुवधभावे दोषमा--- मृलग-मंता संतः । मुद्धा मुग्धाः । ग्रीलं उत्तमक्षगादि गुणाः ज्ञानदर्शनवपांसि : प वेंति नोपयांति ।। भावयदि मात्र शाद । दुरननिमेणा तुनिषीया बोलणा इति पाटे दुःग्यगृहाः इत्यर्थः । परिणामों की निर्मलता करने के लिय आलोचना की जाती है यदि भावद्रिकी प्राप्ति न हो तो उससे क्या नुकसान होता है यह दिखात है.-- अर्थ-जो मुनि महाविद्वान होकर भी क्षभादिकधर्म, संयम, ब्रत, ज्ञान, दर्शन और में यदि भावाद्वियुक्त नहीं होते हैं वे इस संसारमें नाना दुःखोंसे पीडित होते हैं. .-- -- - - कृतायामालोचनायां गुरुणा किं कर्तव्यमित्यत आह आलोयणं सुणित्ता तिरखुत्तो भिक्खुणो उवायेण ॥ जदि उज्जुगोत्ति णिजइ जहाकदं पठ्ठवेदव्यं ॥ ६१७ ।। विकृत्वालांचनां शुद्धां भिक्षोविज्ञाय नत्यतः ।। स मध्यस्थी रहस्यज्ञो दत्ते शुदि यथोचिताम् ॥ ६४०।। विजयोदया - आलोयणं आलोचना । सुणिचा श्रुत्वा । तिपखुत्ता त्रिः पृष्ट्वा ! भिषाणो भिक्षोः। उबायेण OMERATORS ८२०
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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