SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 841
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुदारावना ८२१ उपायेन । जदि उज्जुगोत्तिय यदि ऋजुरयमिति वचनेन अाचरणेन वा ज्ञायते प्रायेण ऋजुता यथा अनुजोर्भावशुजाभावाच व्यवहारिणः प्रायश्चित्तं प्रयच्छति सूरयः । भावशुद्धिमंतरेण पापानपायात् रत्नत्रयस्य निरतिचारत्वा भावात् ॥ कृतायागालोचना गुरुणा किं कर्तव्यमित्यत आह श्रुतं मूलारा तिक्खुतं श्रीन्वायन । उवाएण मनः अहाथ | अथवा कीशोऽपराधस्ते विस्मृत मनेति वा । अनुमति ऋजुरयमिति । गज्जदि सायने वचनेन आचरथेन वा । जयधाकृतं नाि पापं त न आलोचना करनेके अनंत्तर गुरुको क्या करना योग्य है इस प्रश्नका उत्तर अर्थ- संपूर्ण आलोचना सुनकर गुरु क्षपकको तीन वार उपायसे पूछते हैं अर्थात् तुमने कोनसे अपराध किये हैं ध्यान में नहीं रहे हैं पुनः कहो ऐसा तीन बार पूछते हैं. यदि यह अपक सरल परिणामका है ऐसा गुरुके अनुभव आजाय अर्थात् क्षपकके आचरणये और उसके वचनसे गुरु उसका निष्कपटपना अथवा कपटीपना जान लेते हैं. यदि यह क्षपक कपटी है ऐसा दीख पड़ेगा तो वे उसको प्रायश्चित नहीं देते हैं. परिणामकी निर्मलता न होनेसे पापका नाश होता नहीं. और रत्नत्रय में निरतिचारपना आता नहीं. ऋणी इतरा या आलोचना कीशी यस्यां सत्यां प्रायश्चित्तं दीयते न दीयते इत्यत्र आह आदुरसले मोसे मालागरराय कज्ज तिक्खुत्तो ॥ आलोयणाए बकाए उज्जुगाए य आहरणे ६१८ ॥ राजकार्यातुरासत्य सशल्यानामिव त्रिधा ॥ दोषाणां पृच्छना कार्या सूरिणागमवेदिना ॥ ६४२ ॥ विजया दुरसले आतुरो व्याधितः स वैधेन ते । किं भुक्तं ? किमाचरित कीटशी वा रोगस्य वृत्तिरिति । राज्यमपि शरीरनंत्रिः परीश्यते। शुद्धता व्रणस्य जाता न वेति । राजकज्जं निकखुत्तो राजाआशा कार्य किमेवं करिष्यामीति त्रिः पृयते आलोय राजकज्जं निखुसी राक्षा आक्ष कार्य किमेवं करिष्यामीति त्रिः पुन्यं यार का बकायाः । जुगार यादव। आहरणेताः यदि वारत्रयमध्येकरूपेण बक्ति ततो राज्य अन्यथा अन्यदाच यति ग्राक्षं ॥ BITATA: ४ ८२१
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy