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नाना
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करने का कार्य मैंने हाथमें लिया है. उसकी मिद्धिके लिये यह दिशा कारणभूत हैं ऐसा समझकर ने पूर्वाभिमुख बैठते हैं. विदेहक्षेत्र में स्वप्रमादि तीर्थकर होगये हैं. विदेहक्षेत्र उत्तरदिशाकं तरफ हैं. अतः उन नीर्थंकरोंको हृदयमें धारण कर उस दिशाके तरफ आचार्य अपना मुख कार्यसिद्धिके लिये करते हैं. चैत्यके तरफ मुख करने से परिणाम शुभ होंगे जो कि कार्यसिद्धिके निमित्त है इस विचार से वे चैत्याभिमुख बैठते हैं.
निर्व्याकुल बैठकर गुरु आलोचना सुनते हैं. इस प्रकारसे सुननेसे आलोचना करनेवालेका सम्मान होता है. इधर उधर लक्ष देकर सुननेसे गुरुका मेरे संबंध में अनादरभाव है ऐसी आलोचककी समझ होगी जिसमें दोष कहने में उसका उत्साह नष्ट होगा. एक ही आचार्य एकके दोष सुने, यदि बहुत गुरु सुननेके लिये बैठेंगे तो आलोचना करनेवाला श्रपक लज्जित होकर अपने दोष कहनेके लिये तयार होने पर भी उसके मन में खेद उत्पन्न होगा. अतः एक ही आचार्य एककी ही आलोचना सुने. एक कालमें एक आचार्य अनेक क्षपकों की आलोचना सुनने की इच्छा न करें. क्यों कि अनेकांका वचन ध्यान में रखना थडा कठिन कार्य है. इसलिये उनके दोष सुनकर योग्य प्रायश्चित्त नहीं दे सकेगा. इतने विवेचन से हि एकान्त में गुरुके बिना अन्य कोई नहीं होगा ऐसे समय में आलोचना सुननी चाहिये और करनी चाहिये ऐसा सिद्ध होता है. अतः 'विरहम्मि' यह पद व्यर्थ है. इसका उत्तर ऐसा है यदि वहां अन्य भी होंगे तो आलोचकके दोष बाहर फुटनेका संभव है. एक गुरु यदि होंगे तो उस स्थान में पच्छन्नरतिीसे दुसरे का प्रवेश होना योग्य नहीं है. यह सूचित करनेके लिये आचार्य ने 'विरहम' ऐसा पद दिया है.
शिष्यस्य आलोचनाक्रममाच
काऊ व किरयम्मं पडिलेहणमंजलीकरणसुद्धो || आदि सुविहिदो सव्त्रे दोसे पमोत्तू ।। ५६१ ॥ कृत्वा त्रिशुद्धिं प्रतिलिख्य सूरिं प्रणम्य मूर्धस्थितपाणिपद्मः ॥ आलोचनामेष करोति मुक्त्वा दोषानशेषानपत्यदोषः ।। ५८६ ।। इति आलोचना.
आश्वास
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