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________________ मूलाराधना ७६७ विजयोदया-आलोचनादिको आलोचनप्रतिक्रमणादिकाः क्रियाः । अथवा आलोयणं आलोचना । दिया विबसे । पुण पश्चात् । दोह भवति । व प्रशस्त क्षेत्र । मनेन क्षेत्रशुद्धिरुक्ता । विसुद्धभावस्त विशुद्धिपरिणामस्य भाविनेन कथिता | पुरुषच्छे पूर्वष । अपरण् य अपराडे या सोमतिहिरनवेला सौम्ये दिने, नक्षत्रे, वेलायां च । आलोचनादिक्रिया क्षेत्रादिशुद्वावेव कार्येत्यनुशास्ति - मूलारा —— आलोयणाविया आलोचनप्रतिक्रमणादिक्रियाः । अन्ये दिया दिया न रात्रौ इति व्याख्यांत । तच्च नियमार्थमेव । पुष इत्यनेनैव रात्रिनिषेधस्य सामर्थ्यात् । पत्थे शुभे देशे । अर्थ – विशुद्ध परिणामवाले इस क्षपककी आलोचना, प्रतिक्रमणादिक क्रियाएं दिनमें और प्रशस्त स्थान में अर्थात् शुद्ध स्थान में होती है दिवसके पूर्व भाग में अथवा उत्तर भागमें सौम्यतिथि, शुभनक्षत्र, जिस दिनमें रहते हैं उस दिन में होती हैं. आलोचना करने के लिये परिणामोंकी विशुद्धता के साथ क्षेत्रशुद्धि, शुभदिन, शुभतिथि और मनक्षत्र इनकी भी आवश्यकता रहती है ऐसा इस गाथासे व्यक्त होता है. पवमादिषु प्रशस्तेषु देशेषु आलोचनां न प्रतीच्छेत् इति आचार्यशिक्षा परवचनं पित्तकंटलं विज्जुहृदं सुक्खरुक्कड़द । सुण्णघररुहदेउलपत्थररासिट्टियापुंजं ॥ ५५५ ॥ निःपन्नः कटुकः शुष्कपादपः कंटकाचितः ॥ विच्छायः पतितः शीर्णो दवदग्धस्तद्धितः ॥ ५७७ ॥ विजयोइया-पि सकंटथिल्लं निष्पत्रं कंटकाकुलं । विज्जुददं अदामिनाहृतं । सुखरुपकड शुष्कवृक्ष, कदुकरसं दग्धं । सुग्घररुदरेल शून्यं गृहं रुद्रदेवकुलं, पाणणराशि, इप्रका | आलोचनाद्ययोग्य क्षेत्रं गायात्रयेणोपदिशति मूलारा - णिपन्त निष्पत्रं उद्वृक्षयुक्तं स्थानं । एवं कंटइले इत्याद्यपि व्याख्येयं । बिज्जुइदं अशनिपातोपद्रुतं । कटुकटुकर । दानादिप्लुष्टं । इहियापुंज इष्टकानिचये । अप्रशस्त देशमें आलोचना करना योग्य नहीं है ऐसा आचार्यका शिक्षापर वचन दिखाते हैंअर्थ- जो क्षेत्र पतोंसे रहित है, कांटोंसे भरा हुआ है, बिजली गिरनेसे जहां जमीन फट गई है, जहां ४ ७६७
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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