SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 786
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाराधना आश्वासा यह शत्रु है इस लिये इसको कुश करना चाहिये. ऐसे विचार उसके हृदय में उत्पन्न होते हैं, ऐसे विचार उत्पन्न होनेसे वह क्षपक प्रायश्चित्तका आचरण करते समय खिन्न होता नहीं. कर्मके उदयसे उत्पन्न हुई मायाको वह त्याग देता है यह माया मेरे शुद्ध स्वरूपमें अशुद्धता उत्पन्न करनेवाली है ऐसा मनमें समझता है. और आचार्यके चरणसन्निध दर्शनादिकके अतिचारोंका नाश करूंगा ऐसा विचार कर पूर्वमें किये हुए सर्व दोपोंको स्मरता है. मान्दा विनरोति पानामा इय उजुभावमुपगदो सव्वे दोसे सरित्तु तिक्खुत्तो ॥ लेस्साहिं विसुझंतो उवेदि सल्लं समुदरिदु ॥ ५५३ ।। एति शल्यं निराकर्तुं सर्व संस्मृत्य दूषणम् ॥ आलोचनादिकं कर्तुं युज्यते शुद्धचेतसः।। ५७५ ।। विजयोदया-उजुभाय उचगदो इय एवं ऋजुभा उपगतः । सच्चे दोस सर्वेषां दोघाणां । तिपखुत्तो सरिनु निःस्मृत्वा । लेस्साहि विसुज्छतो लेश्याभिविशुद्धीभीवशुद्धयन् । उयदिः द्वौफने मात्राय: सर्व शल्प । समुग्दुि सम्यगुद्धनं ॥ स्मरणानंतर किं करोतीत्यत्राहमूलारा-सरिसु स्मृत्वा । तिक्खुत्तो बीन्वारान् । आचार्यमुपसर्पति ।। दोपोंका स्मरण कर अनंवर कोनसा कार्य क्षपक करता है। इस प्रश्नका उत्सर-- अर्थ---इस तरहसे सरलपना धारण कर तथा सब दोषोंका त्रिवार स्मरण करके लेश्याओंसे विशुद्ध होताहुआ अतिचारोंका उद्धार करने के लिये आचार्य के पास क्षपक जाता है। werest आलोयणादिया पुण होइ पसत्ये य सुद्धभावस्म || पुचण्हे अवरण्हे ब सोमतिहिरक्खबलाए ॥ ५५४ ॥ आलोचनादिकं तस्य संभवेच्छदभावतः ।। अपराहेऽथ पूर्वाण्हे शुभलग्रादिके दिने ॥ ५७६ ॥
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy