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________________ आश्चासः मलाराधना शनिर्मुकः । एयन एकत्नं अहमेकोऽमहायो नित्यो वा । देहोऽयं मत्तोऽन्यो दुःखहेतुत्वाच ममानुपकारी निरतिचाररत्नत्रयमेघाहमतो देहनाशेन मे न किंचिनश्यति मम शुद्धचिदुपस्येयमशुद्धिरिति मायां च न स्पृशेयमिति एकत्वभावनामयो भयतोत्यथः अर्थ-पूर्व गाथामें कहे हुए अभिप्रायके अनुसार पूर्व, उत्तर अथवा चैत्येक तरफ मुख करके मैं शरीरका त्याग करताईऐसा प्रथम वचनोचार करके तदनंतर 'यह देह मेरा है, ऐसी भावनाका मनसे त्याग करना चाहिये. इस वास्ते शरीरत्यागके वचनकृत और मनःकृत ऐसे दो भेद होते हैं. देहके उपर ममत्वरहित होनेसे वह क्षपक निष्परिग्रह है. और निष्परिग्रह होनेसेही वह निःशल्य भी है. अतः कायोत्सर्गके समय में अकेलाही हूं यह शरीर मेरा नहीं ऐसी एकत्वभावना उसको उत्पन्न होती है. तो एयत्तमुबगदो सरेदि सव्वे कदे सगे दोसे ॥ आयरियादमूट उप्पाडिस्सामि सल्लति ॥ ५५२ ॥ इत्यकत्वगतः कृत्स्नं दोषं स्मरति यत्नतः ।। इत्थं समाजलीभूय सर्व संस्मृत्य दूषणं ॥ ५७४ ।। विजयोदया-पगसमुवगदो पकत्यभावनामुपगतः । निरतिचारशानदर्शनचारित्राण्यवाहं । शरीरमिदमन्यदनु पकारि मम दुःस्त्रनिमित्तत्याम् । तद्विनाशे मम किं चिनश्यति । कशयितव्योऽयमरातिरिति मन्यमानः प्रायश्चित्तापरणे न. खिद्यते । मायां च कर्मोदयनिमित्त हार्नु ईहतो मम शुद्धरुपस्येयमशुद्धिरिति । तो ततः । सरेदि स्मरति । सध्ये सपा । कदे कृतानां । संग म्पकानां । दोस दोषाणां । किमर्थ स्मरति । आपरियपातमूले आचार्यपादमूले । उपा. डिम्यामि पाटयिप्यामि । सहनि दर्शनातिचामिनि ।। मूदाग-दो तन् । कायोसीनिकगो क्रमप्रवृत्तं । कदे कृतान । किमर्थ तान्भरतीत्याह-आयरियपादमले त्यादि ॥ अर्थ-जब क्षपक एकत्यभावनामय होता है तब मैं अतिचाररहित ज्ञान, दर्शन और चारित्रमय है, यह शरीर मेरेसे भिन्न है, यह उपकारन करने वाला और दुःख केलिये कारण है. उसके नाशसे मेरा कुछ बिगडता नहीं है,
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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