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गृलाराधना
भाषासा
मेरेऊपर रुए हॉग अथवा मेरे ऐहिक कार्यो वाधा उपस्थित होगी ऐसी भीतीसे मान न करना यह सच्चा मार्दन नहीं है, किंतु मान करनेसे आत्मा पवित होता है. मानसे नीचगति में भ्रमण करना पडेगा ऐसी भावना हृदयमें धारण कर मादेवधर्मका पालन करना चाहिये।
३ आर्जक- दोरीके, दो छोर पकड़कर खीचनेसे चूह सरल होती है उसी तरह मन से कपट दूर करनेपर बह सरल होता है, अर्थात् मनकी सरवतीको आर्जव कहते है..
४ लाघव धनादि वस्तुम ये मेरे है ऐसी अभिलाषघुद्धिही सर्व संकटोंमें मनुष्यको गिराती है इस ममत्वको हृदयसे दूर करनाही लाघव अर्थात शौच धर्म है.
तए - प्रश, राज, रेखमा साम करना, रसोंका त्याग करना, दाता पात्र इत्यादिकोंका नियम करना यह सब तप है. इस लोकमें अपनी कीर्ति हो, अपनेको लोक पूजे इत्यादि अभिलाषा छोडकर बारह प्रकारका तप करना चाहिये.
६ संयम --- इंद्रियोंके स्पशीदि इष्ट व अनिष्ट विपयोंसे अपने मनको हटाना. इष्ट वस्तुमें रागभाव रखना. अनिष्ट वस्तुसे द्वेष करना यह इंद्रिय असंयम है. इनसे निवृत्त होना यह इंद्रियसंयम हैं, पंच स्थावर और वसजीव इनको बाधा देनेसे विरक्त होना यह प्राणिसंयम है.
७ संपूर्ण परिग्रहाँका त्याग करना यह आकिंचन्य धर्म है. ८. नर प्रकारके नामचर्थका पालन करना या ब्रह्मचर्य है. ". मुनि और उनके भक्त अधीन श्रावक इनके साथ आत्महितकर भाषण बोलनाथह सत्य धर्म है.
2- मुनिओंके लिये योग्य ऐसे आहार, अभय--यसतिका और शास्त्र ये चीजें देना यह त्याग धर्म है, गये धर्मके दश भेद कहे.
जो रत्नत्रयको साधते हैं ऐसे मुनिराजको साधु कहते हैं. १ वस्तुके यथार्थ स्वरूप जाननेवाले ज्ञानमें परिणति होना यह ज्ञानाचार है. २ तत्वश्रद्धानमें परिणति होना यह दर्शनाचार है. ३ हिंसादि पांच पापक्रियाओंसे निरक्त होना चारित्राचार है.
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