________________
MORE
पूलाराधना
आश्वास:
ने आगमार्थकान दीकिल्ला अधीन कहा हुवा अर्थ शिष्य
४ अनशनादि क्रियाओंमे प्रवृत्ति रहना तप आचार है. ५ अपनी शक्तीके अनुसार ज्ञान दर्शन चारित्रादिको प्रवृत्ति करना वीर्याचार है.
ऊपर कर गये पांच आचारोंमें जो स्वयं उद्युक्त होते हैं और शियाको उक्त करते हैं ये मुनि आचार्य कहलान है,
जो रत्नत्रयमें प्रवृत्ति करते हैं और जिनेन्द्र भगवानका कहा हवा अर्थ शिष्योंकी अविरुद्ध तासे कहते हैं ये उपाध्याय परमेष्टि है. उपेत्य विनयेन दौफिल्बा अधीयते श्रुतमस्मादिति उपाध्यायः । अर्थात विनयसे आकर जिनसे शिष्यमुनि आगमार्थका पठन करते हैं ऐसे मुनिराजको उपाध्याय परमेष्टि कहते हैं.
प्रवचन-शंका-श्रुत शब्द प्रवचनवाची है उसका खुलासा किया गया है, प्रवचनका अर्थ श्रुत होता पुनरपि यहां श्रुतका ग्रहण करनेसे पुनरुक्तमा दोष आया. उत्तर --प्रवचन शब्दका अर्थ यहाँ रत्नत्रय है. 'णाण दसणचरित्तमेग पवयणं ऐसे आगम वाक्यसे रत्नत्रयको प्रवचन कहते हैं यह सिद्ध होता है. अथवा श्रुतज्ञानको श्रुत फहना चाहिये ऐसा पूर्वमें कहा है. यहाँ 'प्रोच्यते जीवादयो येनेति' जिनके द्वारा जीवादि पदायाँका विवेचन किया जाता है वह प्रवचन है अर्थात् शब्दात्मक श्रुतको यहां प्रवचन कहते हैं.
अरहंत, सिद्ध, इनके और आचार्यादिकोंके प्रतिबिन, श्रुतज्ञान, धर्म, साधुवर्ग, आचार्य, उपाध्याय, शन्द अत और सम्यग्दर्शन इनमें भाक्ति, पूजा प्रशंसा वगैरे करना यह संक्षेपसे दर्शन विनय है. ऐसा इस गाथाका अभिप्राय है. ॥ ४६॥
भत्ती पूया वणजणणं च णासणमवण्णवादस्स ।। आसादणपरिहारो दमणविणओ समासेण ॥ ४७ ॥ भक्तिः पूजायशोवादी दोषावज्ञा तिरस्क्रिया ।।
समासेनेघ निर्दिष्टा बिनयों दर्शनाश्रयः || विजयोदया का भी पूजा? अहदायगुणानुरागो गतिः । पूजा द्वियकारा ध्यपूजा भावपूजा नेति । गम्धपुग्धपाक्षतादिदानं दादिश्य द्रव्यपूजा । अभ्युत्थान पदविकरणप्रणमनादिका काकिया च । नया गस्तवनं च भावपूजा मनसा तदगुणानुसारर्ण ।
-
-
-
।