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आबामः
मूलाराधना
प्राप्त हो गये हैं. उनको नो आगमभान सिद्ध कहते हैं. इसी सिद्धका प्रकृतविषयमें ग्रहण किया है, इतर सिद्धोंगा ग्रहण नहीं किया है क्योंकि इतर सिद्धार्म संभूर्णतया आत्मस्वरूपकी प्राप्ति नहीं हुई है.
३ चंदिय- चैत्य अर्थात् प्रतिमा चत्य शब्दमे प्रस्तुत प्रसंगमें अर्हत और सिद्धोंके प्रतिमाओंका ग्रहण समझना चाहिये. अथवा यह मध्यप्रक्षेप है. इसलिये पूर्वविषय और उत्तर विषयक स्थापनाका यहां ग्रहण होता है. अर्थात् पूर्वविषय तो अरहंत और सिद्ध है ही. उत्तर विषय - श्रुत, शास्त्र, धर्म, साधुपरमेष्टी, आचार्य, साधु वगैरह है. इनका भी यहां संग्रह होता है, इनकी भी स्थापनाप्रतिमा होती है..
४ श्रुतज्ञान-श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेसे वस्तुके यथार्थ स्वरूपका ग्रहण करनेवाला सम्पग्दर्शन सहित जो ज्ञान बह श्रुतज्ञान है. इस ज्ञानके आचारांगादि बारा अग, उत्पाद पूर्वादि चौदा पूर्व, और सामायिकादि चोचीस प्रकीर्णक अर्थात् अंगबाट ऐसे इसके भेद हैं. इसकी रचना तीर्थकर, श्रुतफेवली, गणधर और आरातीय आचार्य इन्होंने की है.
५ धर्म-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका अनुसरण करने वाला सम्यक् चारित्र यहां धर्म शब्दका अर्थ है. इस धर्मके सामायिक छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसापराय, और यथाख्यात ऐसे पांच भेद हैं. दुर्गतिको जानेवाले जीवको जो धारण करता है अर्थात् उसका उद्धार करता है और शुम इंद्रादिपदवीपर जो स्थापन करता है वह धर्म है ऐसी धर्मशब्दकी व्याख्या है, अथवा
क्षमा, मार्दव, आर्जब, शौच, तप, संयम, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य, सत्य और त्याग ऐसे दश धर्म अन्य ग्रंथ कहे हैं उनका भी यहां धर्म शब्दसे संग्रह करना चाहिये,
१ क्षमा-कोधके निमित्त-कवचन, निंदा बगैरे उपस्थिन होनेपर भी मनमें कलुपना उत्पन्न न होने दना, किसीके साथ अपनी मित्रता होता है तब क्रोचक कारण उपस्थित होनेपर भी मन कलुपित न होने देना यह कुछ क्षमा नहीं समझी जाती है, अथवा अपना कार्य सिद्ध होने तक मनुप्य क्रोधका कारण उपस्थित होनेपर मी शांति धारण करता है यह भी सच्ची क्षमा नहीं है. परंतु स्नेहादिकी अपेक्षाविना जो शांतिभाव मनमें धारणा करना वही क्षमा है.
२ मार्दव -- जाति, कुल, तप इत्यादिका अभिमान न होना वह मार्दव है. मैं अभिमान करूंगा तो लोक