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मूलाराधना
आश्वासा
मालमें सिद्ध है येही पाती है. सयोगकेवली मारता नहीं है ऐसा मानना पार
सिद्धोंके प्रतिबिंबाको स्थापनासिद्ध कहते हैं,
(यहां शंका-शरीसहित आत्माका प्रतिबिंच अर्थात् प्रतिमा मानना योग्य है, परंतु जिनके शरीरका अभाव है, जो शुद्धात्मस्वरूपको प्राप्त हो गये हैं ऐसे सिद्धाकी प्रतिमा मानना अर्थात् मतिमा सिद्धाका आरोप करना यह कैसा न्यायसंगत है ?
उत्तर-पूर्वभावप्रज्ञापननयकी अपेक्षासे सिद्धाको प्रतिमा स्थापन फर सकते हैं. अर्थात् जो वर्तमान कालमें सिद्ध है वेही पूर्वकालमें शरीरसहित सयोगकेवली थे अतः उनकी अपेक्षासे सिद्धॉमें भेद न मानकर प्रतिमामें सिद्धाकी स्थापना हो सकती है. सयोगकेवली अथवा इतर आत्मा शरीरसे विभिम नहीं होता है. यदि सयोग केवलीको देहसे विभिन्न मानोगे तो सयोगकेवलीको संसारिता नहीं है ऐसा मानना पड़ेगा. अशरीर माननेसे संसारी व अशरीरता यह परस्पर विरुद्ध है. अतः शरीरकी आकृतीक समान चिदात्मा भी आकृतिमान समझना चाहिये. जैसी शरीरकी आकृति रहती है उसी तरह चिदात्मा सिद्धकी भी आकृति रहती है. इस लिये शरीरके समान चिदात्मा सिद्ध भी संस्थानवान्-आकृतिवान है. शरीरस्थ आत्मा जैसा अपने संस्थानसे आकृतिसे अभिन्न है पैसा मुक्तात्मा भी अपने संस्थानसे अभिन्न है. अतः प्रतिमा में सम्यक्त्यादि अष्ट गुणोंसे बिराजमान वही सिद्ध ये है ऐमा संकल्प कर सकते हैं, अतः सिद्धों में स्थापनाका संभव होता )
आगमद्रव्यसिद्ध-सिद्धप्राभृतकं ज्ञाता परंतु संपनि अनुपयुक्त एवं विद्वानको आगभद्रचसिद्ध कहत हैं. सिद्धप्राभृतके ज्ञाताका जो शरीर वह ज्ञायकशरीर है, जिसको भविष्यकालमें सिद्धावस्था प्राप्त होनेवाली है ऐमा प्रान्मा भाविसिद्ध है.
व्यतिरिक्त सिद्धकी संभावना नहीं है. क्योंकि जंगे तीर्थकरनामकमसे अहेत्पर्याय प्राप्त होती है वैभ सिद्धपर्याय किसी कर्मके उदयस होता नहीं है. चह संपूर्ण कर्मक नाशसे होता है. इसलिये व्यतिरिक्तसिद्ध यह भेद नहीं है. कोइ पुगलद्रव्य भी सिद्धत्वपर्यायका उत्पादक है नहीं इसलिये नोकर्मसिद्ध यह भी भेद नहीं है.
सिद्धप्राभृतके अनुसार सिद्धोंका स्वरूप जाननेवाले ज्ञानसे परिणत आत्माको आगमभावसिद्ध कहते हैं.
__ संपूर्ण द्रण्यकर्म और भावकर्ममल जिनका नष्ट हो चुका है. अनंतशानादि सर्व क्षायिकमाय जिनको
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