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मूलाराधना
आश्वासः
दर्शनविनयका विवेचन आचार्य दो गाथाओंसे करते हैं
हिंदी अर्थ--अरहंत, सिद्ध, अहंत और सिद्धोंकी प्रतिमायें, श्रुतज्ञान, जिनधर्म, आचार्य, उपाध्याय व साधु परमेष्टी, रत्नत्रय, आगम और सम्यग्दर्शन इनमें भकि, पूजा, करना. इनमें अन्यमतीयोंने आरोपित किये दोपोंको इटाना, इनका महत्व बताना, इत्यादि भातासे दर्शनविनय होता है.
विशेषार्थ-जिन्होंने अरिहनन किया अर्थात् मोहनीय कर्मका नाश किया, रजोइनन अर्थात् ज्ञानावरण और दर्शनावरयाको नष्ट किया, रहसहनन अर्थात् अन्तराय कर्मका पात किया तथा इन्द्रादिकोंके द्वारा जो सातिशय पूजाको प्राप्त हुए इस लिये जो नो आगमभाव निक्षेपसे अर्हन्त इस नामको प्राप्त हुए हैं उनकोही प्रकृत विषयमें अईन् समझना चाहिये. चार पारिफर्मोका नाश होनेसे जिनको अईतकी अवस्था साझाद प्राप्त हो गई वेही यहां अईन्त माने हैं. केवल जो नामसे ही अहंत है वे यहां अईन्त नहीं समझे जायेंगे. निमित्त न होनेपरभी मनुप्यके प्रयत्नसे जिसमें अईन ऐसा नामकरण विधि होता है उसको नामर्हत कहते हैं. अर्हन्त की प्रतिमाम वही यह अर्हत है ऐसे संकल्पसे जो स्थापना की जाती है वह ' स्थापनाईत है. स्थापनारूप अर्हत में पूजातिशय होनेपर भी अरिहननादि गुण अर्थात् मोहनीयादि चार घातिकर्मोका नाश करनेका गुण नहीं है. अतः स्थापनात् भी प्रकृत विषयमें उपयुक्त नहीं है, अर्हन्तके स्वरूपका वर्णन करनेवाले शास्त्रका जिसको अच्छा ज्ञान है परंतु उस तरफ जिसका सांप्रत उपयोग नहीं लगा है, दुसरे तरफ जिसका चित्त लगा है ऐसे पुरुषको द्रब्यनिक्षपसे अर्हत कहते हैं. अईतके स्वरूपका वर्णन करनेवाले शास्त्रको जाननेवाले विद्वानका जो त्रिकालवी शरीर वह जायकशरीर अर्हन् है. जिस आत्मामें भाविकालमें अरिहननादिक अर्हन्तके गुण उत्पन्न होंगे ऐसे आत्माको सांप्रनमें अर्हत कहना यह भावि अहेन है. नीर्थकरनामकर्मको तद्व्यतिरिक्त अर्हत् कहते हैं. अहंन्तके स्वरूपका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रका महान जिसको है और वर्तमान कालमें वह ज्ञान अहम्वरूपका विचार कर रहा हो तो उसको आगमनावाईन कहते है,
नो आममभावाईन्तके शिवाय नामादि अर्हन्ताम अग्हिननादि गुणोंका अभात्र है अत एव नामादि । अहतका यहां ग्रहण नहीं किया है.
सिद्धोंके भी नामसिद्ध, स्थापनासिद्ध गरे भेद है. जिसको सिद्धस्वरूप प्राप्त नहीं हुवा है ऐसे मनुष्यको नामसिद्ध कहते हैं. उसका सिद्ध यह नाम गुणादिनिमित्तोंके बिना केवल व्यवहारार्थ रक्खा गया है.