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________________ मूलाराधना २१५ संवरपुरःसरी निर्जरा गाथाद्वयन स्तोतुमाह-- मूलारा-असंबुद्धो असंवृत्तो अशुभयोगनिरोधरहित इत्यर्थः । संवुडो गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीपहजयपरिणतः | तबस्सी अनशनादितपोनिष्टः । संवरपूर्चक निर्जराकी ग्रंथकार स्तुति करते हैं अर्थ-अशुभ मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको न रोक कर बायतपके द्वारा बहुतकालस जो मुनि जितन कर्मकी निर्जरा करता है, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षादिकामे तत्पर रहनेवाला माधु उतना कर्म अनशनादि तपाँके र अंगी बामुहि समिति इत्यादिकोंसे संघरपूर्वक विपुल कर्मकी निर्जरा होती है और केवल बाह्य तप गुप्ति समित्यादिकों के आबयसे रहित होकर बहुनकालसे भी उतनी निर्जरा नहीं कर सकता है. FOR एवमवलायमाणो भावमाणो तवेण एदेण || दोसे णिग्याडतो पग्गहिददरं परकमदि ॥ २३५ ॥ एवं भावयमानः संस्तपसा स्थिरमानसः ।। अप्रास्तं परीणाम नाशयंश्चष्टते नराम् ।। २३६ ।। विजयोदया-- एवमुक्तेन । कमेण एतग । नवण भावमाणो नपमा भाषयमात्मानमुद्यप्तः । अवलायमाणो अपलायमानः । कुतो दुर्धरात्तपसः । एवमवलोयमाणो इति चिन्पायः तपारमा -किल एवमेदण नयेण भावेमाणी इति पदसरंधः। परमेतेन तपसा भावयमानः अपलोयमाणो इब्यकर्म विनाशयन् इति तदयुक्तं । प्रायदार्थत्वात् । दोसे दृप्रयंति रत्नत्रयमिति दोषाः अशुभपरिणामाः तान घातयन् । पम्गहिददरं नितरां । परकमदि चेष्टते मुक्तिमागें। मूलारा-अवलायमाणो अपलायमानः दुर्धरात्तपसोऽयिभ्यदित्यर्थः । भावेमाणो भावयमानः । तयण देण दोसे णिग्यादेतो अशुभपरिणामान विनाशयन् । परगहिददरं नितरां परकमदि मोक्षमार्गे चेष्टते । अर्थ-इस रीतीस तपश्चरणसे आत्माको संस्कृत करनेवाला और दुधर तपसे जो भययुक्त नहीं हुआ है. ऐमा मुनि रत्नत्रयको दूषित करनेवाले अशुभपरिणामोंको नष्ट करता हुआ मोक्षमार्गमें महाप्रयत्नसे प्रवृत्त होता है.
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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