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________________ लाधि से आश्वास विजयोदया-इय एवं । सहीण एकात्मतां उचगदो उपगतः । केन ? जोगेहि योगैः तपोभिनिर्वा । सुहप्पवसहि मुखप्रवृत्तः सुखनाशेन प्रवृत्तः । पंचलमिदो समितिपंचकोपेनः । विगुत्तो कूताशुभमनोबाकाचनिगेधः । आद गररायणो होदि धाश्मप्रयोजनपरो भवति । गतेन कश्यते--निवितावसतिस्थायी यतिनिष्प्रतिवध्यानः शुभैस्तपोभिदा स्वास्थ्यमुपगतः नवरं निर्जन स्वप्रयोजनं संपादयति इति । विविनयमति स्थायी पारादिना पातम्यासन्यः यानिर्जी. करोनीनियनि--- मूलारा-श्य it anायित्वलक्षमता प्रकारेण । लीण गामना । सुणस्तहि अक्लेशन प्रवृत्तः । तस्थ बाह्य तपसि । सलीनमुपगत इति योज्यम् । जोगेहिं मनोवाधााना । तिगुत्तो कृताशुभमनोवाकायनिरोधः । आदट्टपरायणो आत्मप्रयोजनपरः मंचरनिर्जरानिष्टः इत्यर्थः ।। अर्थ- इस प्रकार एकांत वसतिकामें निवास कर वह माधु क्लेशक चिना मुखसे तप और ध्यान कर आत्मस्वरूपमें लीन होता है. योगमिति वगैरह पांच समितिओंका पालन करना है. मन वचन और शरिकी अशुभ प्रवृत्तियां रोक कर आत्मप्रयोजनमें तत्पर होता है. अभिप्राय यह है कि, एकांत सातकामें रहनेसे मुनिआके ध्यानमें और स्वाध्यायमें विघ्न उपस्थित होते नहीं है. तथा रागद्वेषादिक संक्लशपरिणामाकी उत्पत्ति होती नहीं. तपसे मुनि निजस्वरूपमें स्थिर होकर संबर और निर्जरारूपमें आत्माके प्रयोजनको पूर्ण रूपसे प्राप्त कर सकते हैं. अतः विविक्तशय्यासन तप करना मुनिओंका परम कर्तव्य है. .. . संवरपूर्विका निर्जरा स्तोतुमाह जो णिज्जरेदि कम्मं असंवुडो सुमहदावि कालेण ॥ ते संक्डो तवस्सी खवेदि अंतोमुहत्तेण ॥ २३४ ॥ तमिर्जरयते कर्म संधृतोऽन्तर्मुहर्ततः ।। षष्ठाष्ठमादिभिः साधुस्तपसा पदसंघृतः ।। २३५ ।। विजयोदया-जं णिजरेदि कम्म यत्कर्म निर्जरयन्ति तपसा चाहोन । कः ? असंवुडो असंवृतः अशुभयोगनिरो. धरहितः । सुमहदावि कालेण सुष्टु माहता कालेनापि । तं तत्कर्म सवेदि क्षपयति । अंतोमुटुत्तेण अतिस्वल्पेन कालेन । कः ? सबुतो संवृतः गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयपरिणतः । तवस्सी तपस्वी अनशनादिमान् । Forse
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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