SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 462
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाराधन ४४२ विविक्तशयनासननिरूपणा जत्य ण सत्तिंग अस्थि दु सहरसरूवगंधफासेहिं ॥ सज्झायज्झाणवाघादो वा वसधी विवित्ता सा ॥ २२८ ॥ विविक्तवसतिः सास्ति यस्यां रूपरसादिभिः ॥ संपद्यते न संक्लेशो न ध्यानाध्ययने क्षतिः ॥ २२८ ॥ विजयोदया - जस्थ ण सोत्तिग यस्यां वसती न विद्यतेऽशुभपरिणामः । सहरसरूवगंधफासहि शब्दर सरूपगंधस्पर्शः करणभूतैः मनोरमनोर्चा सा विदिसा घसधी विविक्ता वसतिः । सज्झायज्झाणवाघाहो स्वाध्याय ध्यानयो घात या नास्ति सा विविक्ता भवति । विशिय्याख्यं तपो गाथापंचकेन व्याचक्षाणः प्रथमं विविक्तवसति सामान्यलक्षणमाह मूलारा - विसोत्तिगा अशुभपरिणामो रागद्वेषमोहात्मक संक्लेशरूपः । वाघादो विनाशः । विविक्तशयनासनदपका वर्णन करते हैं अर्थ - जिस वसतिकामें मनोहर और अमनोहर ऐसे स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्दोंसे अशुभ परिणाम नहीं होते हैं वह वसतिका रहनेके लिये योग्य है तथा जिसमें स्वाध्याय और ध्यान में विभ नहीं होता है वह वसतिका मुनिओं को रहने के लिये योग्य होती है. ऐसी वसतिकाको विविक्तवसतिका कहना चाहिये. विडाए अवियडाए समधिसमाए बहिं च अंतो वा ॥ इत्थिणउंसयपसुवज्जिदाए सीदाए उसिणाए ।। २२९ ॥ अंतर्बहियां शय्यां विकदां विषमां समाम् ॥ वनविकai सेव्यां रामाषंढ पशुज्झिताम् ॥ २२९ ॥ विजयोदा विडा उद्घाटितद्वारायां । अवियार अनुवादितद्वारायां वा । समविसमा समभूमिसमन्त्रि तायां विषमभूमिसमन्वितायां । यहि व बहिर्भागे वा । अतो वा अभ्यंतरं या इथियपसुबजिदा स्त्रीभिर्नपुंसक पशुभिश्च वर्जिसायां बसती सीक्षण शीतायां । उसिणार उष्णायां । ०००००० आश्र ४४
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy