SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 956
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आवामः मूलाराधना जहां मांग, तूर्याग, वखांग, भोजनांग, पात्रांग, आभरणांग, माल्यांग गृहांग, दीपांग, और ज्योतिरंग ऐसे दश प्रकारके कल्पवृक्ष रहते हैं. और इससे मनुष्याकी उपजीविका चलती है ऐसे स्थानको भोगभूमि कहते हैं. भोगभूमिमें नगर, कुल, असिमष्यादि क्रिया, शिल्प, वर्णाश्रमकी पद्धति ये नहीं होती हैं. यहां मनुष्य और स्त्री पूर्वपुण्यसे पतिपत्नी होकर रममाण होते हैं, वे सदानीरोगही रहते हैं और सुख भोगते हैं, यहां के लोक स्वभावमे ही मृद परिणामी अर्थात मंद कषायी होते हैं. इसलिये मरणोत्तर उनको स्वर्गकी प्राप्ति होती है. भोगभूमिमें रहनेवाले मनुष्याको भोमभूमिज कहते हैं, अन्तरद्वीपज मनुष्योंका वर्णन--ये मनुष्य, अमापक गूंगे, एक टांगवाले, पूंछवाले, सींगको धारण करनेवाले, ऐसे अनेक प्रकारके रहते हैं. यहांके कोई मनुष्य दर्पणके समान मुखयाले, हाथी, घोडा, इनके मुख समान मुखवाले, बिजली और उल्का सनास सुरवात हसे है. फिी २ मनुष्योंके कान हाथी और घोडोंके कान सरीखे रहते हैं. कितने मनुष्योंके कान इतने बड़े होते हैं कि वे उसको ओह सकते हैं. इन सब मनुष्योंको अन्तद्वीपज मनुष्य कहते हैं. ये मनुष्य लवणोद और कालोद समुद्र के चीचमें ९६ अन्तद्वीप है उनमें रहते हैं. उनका आचरण पशुके समान रहता है. वे मनुष्यायुका अनुभव लेते हैं. कर्मभूमीमें चक्रवर्ती, बलभद्र वगैरह बडे राजाओंके मेन्यों में, मलमत्रोंका जहां क्षेपण करत है ऐसे स्थानोपर, बीय, नाकका मल, कफ, कान और दांतोंका मल और अत्यंत अपवित्र प्रदेश इनमें जो तत्काल उत्पन्न होते हैं. जिनका शरीर अंगुलका असंख्यात भाग मात्र रहता है. और जो जन्म लेनेके बाद शीघ्र नष्ट होते हैं और जो लमध्यपर्याप्तक होते हैं उनको सम्मूर्छन मनुष्य कहते हैं. इन मनुष्योंमें जो कर्मभूमिज मनुष्य हैं उनका ही रत्नत्रयपरिणाम की योग्यता हैं. इतरोंको नहीं हैं. इस बास्ते मनुज शबसे इनका ही ग्रहण समझना चाहिय. रत्नत्रयकी योग्यताको धारण करनेवाला मनुष्यजन्म मिलने पर भी ज्ञानावरणकमके उदयसे हिताहित की परीक्षा करनेवाली बुद्धि प्राप्त होना सुलभ नहीं है, एसी बुद्धि यदि प्राप्त नहीं हुई तो यह मनुष्यजन्म प्राप्त होकर भी निष्फल ही हुआ समझना चाहिये. नेत्र बढे होकर भी उनसे पदार्थ दीखत नहीं है, अच्छे कुलमें जन्म होनेपर मी पदि सौदर्य प्राप्त नहीं हुआ, बोलने की शक्ति प्राप्त होकर भी यदि असत्य बोलनेके तरफ ही प्रवृत्ति होने SHRESTANTaar Pela (30
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy