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रापना
भाया
चिजयोदया-रुवाणि कडकम्मादियापित काष्ठे उत्कीर्णानि रूपाणि स्त्रीणां पुंसां मन्येषां च माविशब्देन शिलादंतादिपरिमहाश्चरं चिट्ठत्ति सारवेत्तस्स चिरं तिष्ठति संस्कुर्वतः । धणि पिसारवेतस्स नितरामपि संस्कुर्चतः । ठादि ण चिरं शरीरमिमं न तिष्ठति चिरं शामिरमिर्द ॥
देहाध्रुवत्वमाहमूलारा-रूवाई इति-सारवेतस संम्वतः ।
शरीरकी अनित्यताका विवेचन
__ अर्थ-लकडी, पत्थर, हस्तिदंत इत्यादिकोंसे बनाये हुए स्त्रीपुरुषोंके चित्र और अन्य प्राणिओंके चित्र संस्कार करनेस बहुत काल तक रहते हैं परंतु इस देहपर व्यायाम, अनादिकाके द्वारा कितना भी संस्कार करो चिरकालतक ठहरता नहीं.
म केवलं शरीरमेष भनित्यमपि स्वन्यदपि इति व्याचष्टे
( मेघहिमफेणउक्कासंझाजलबुब्बुदो व मणुगाणं ॥
इंदियजोव्वणमदिरूवतेयबलबीरियमणिचं ॥ १०६० ॥1 यौबनेंद्रियलावण्यतेजोरूपघलादयः ।।
गुणाः क्षपणेन नइयंति शारदा श्ष नीरवाः ॥ १०९२ ।। विजयोदया--मेघहिमफेणउकासंझाजलखुश्वुदोष मेघपद्धिमवस्फेनबदुल्कापासंध्याघजलबुदवाय । मणुयाण मनुजाना । इंदियजोधणमदिकवतेजबलवारियमणिच्च । नियाणि, यौवन, मतिः, रूप, तेजो, बलं, वीय, चानिन्यं ॥
न परं शरीरभेवानित्यं अपि तु अपरमपीत्याह
मूलारा--मेघहि-स्पएम् । - अर्थ-मेघ, बर्फ. पानीका फेन, उल्का, संध्याकाल और पानीका बबूला इन के समान मनुष्योंकी इंद्रियां, तारुण्य, बुद्धि, रूप, तेज, बल, वीर्य ये भी अनित्य हैं. जब मनुष्यपर्याय ही अनित्य है तो उस पर्या यमें प्राप्त होनेवाली उपयुक्त चीजे कैसी स्थिर हो सकती है. ।