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________________ मूलाराधना আগ্ধা विजयोदया-भायरियत्तादिणिदाणे वि को भाचार्यत्यादिनिदामेऽपि कृते । णस्थि तस्स नास्ति तस्य । ताम्म भवे तस्मिन्मवे निदान करणमचे । धणि पि संजमंतस्स नितरामपि संयम कुर्धतः। कि नास्ति सिमण सेधन मुक्तिः । केन ? माणदोसण मानकषायदोरेण । समाचार्यत्वादिमार्थनां करोति । प्रष्ठो भविष्यामीति संकल्पन, ततोऽप्ययुता ॥ आचार्यस्वादिप्रार्थना कथं दूष्या त्नत्रयातिशयलाभप्रार्थनापरत्वादिति शंकायमाह-- मूलारा- तम्हि भवे निदानकरणजन्मनि । सिझणं सेधनं सिद्धिः । यद्यपि अस्ति तद्भने आचार्यत्वादिकं तथापि मास्ति मुक्तिरिति भावः । माणदोसेण आचायादिर्भ वन्यज्यो भविष्यामि इति संकल्पापराधेन ॥ आचार्यपदवी, गणधरपदवी इत्यादिककी अभिलाषा करना अयोग्य नहीं है क्यों कि रत्नत्रयका माहात्म्य माप्त होने के लिये उनकी अभिलाषा की जाति है. इस शंकाका उत्सर आचार्य कहते हैं अर्थ-आचार्यस्य, गणधरपदची इत्यादिका निदान करने परभी इनपदाकी प्राप्ति इसी जन्ममें होती भी नहीं. बहुत उज्ज्वल संयम होनेपर भी इन पदोंकी उसी जन्ममें प्राप्ति नहीं होती है. कदाचित आचार्यत्यादिककी उसी भवमें प्रामि भी हो गई तो भी उस संयमी को मुक्तिपदकी प्राप्ति मानकषाय दोषसे नहीं होती है. मैं आचार्य होकर पूज्य होऊं इस अभिप्रायसे प्रवृत्ति होती है अतः उसमें अहंकार प्रकट दीखता है. भोगछोपचिंतायो सत्यां निदान तथा न भवति इति कथयत्ति-- भोगा चिंतेदव्या किंपाकफलोवमा कडविरागा ॥ महरा व मुंजमाणा माझे बहुदुक्खभयपउरा || १२४१ ।। मधुराः सेवमाना हि विपाके दुखदायिनः ।। चिंतनीयाः सदा भोगाः किंपाकफलसंनिभाः ॥ १९८९ ॥ विजयोदया-मोगा चितरवा भोगाश्चिन्त्याः। किंगायफलोचमा किपाकफलसदृशाः । कविपागा कटु अनिष्ट विषाकः फलं पामिति कटुविपाकरः । मधुराव मधुरा एव । भुंजमाणा भुज्यमानाः । मज्झे मध्ये । बहुदु. पखमयपउरा विचित्रदुःखभयाः॥ भोगनिदानाभावाय भोगदोषभावनामाह १२३.
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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