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आधास:
मूलाराधना
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विज योदया-तह संजम गुणभरिद तथा संयमेन गुणेन भरित संपूर्ण । संयमम्य सभ्यो गुणेः प्रधानन्या स संयमशब्दस्य पूर्वनिपातः । परिस्सदुम्मीईि विपासादुनानि परोपनाते । ऊर्मय चानुकरणोद्स्यस्य ऊर्मियर. देश लमन्ते । परीपहोर्मिभिः खुभि चलिने । आइदं निर्वभूते यतिपोत ।। मिजयगो धारदि खुमिर्यापकसरिधारयति । मधुरेहि हिदोवदेसहि मधुरैर्हितोपदेशैः
मूलारा--परीसहुम्मीहि परीषदा अमेय इवानुक्रमेणोद्गच्छन्तीति कृत्वा । खुहिदं चलितं । आविर्द्ध तिर्यग्भूतं भ्रमितं वा। . ..
. . अर्थ--पैसे संयमगुणों से भरी हुई यह क्षपकनौका क्षुधा, प्यास, वगैरह तरंगोंसे क्षुब्ध होकर तिरछी होरही है. ऐसे समयमें निर्यापकाचार्य मधुर हितोपदेशके द्वारा उसको धारण करते हैं अथीत् उसका संरक्षण करते हैं.
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धिदिधलकरमादहिंद महुरं कण्णाहुदि जदि ण देइ ॥ सिद्धिसुहमावहती चत्ता साराहणा होइ ।। ५०५ ॥ फर्णाहुतिं न चेहत्ते धृतिस्थामकरी गणी ॥...
'आराधनां सुखाहत्री जहाति क्षपकस्तदा ।। ५२१ ॥ विज्ञयोदया-धिदिवलकरं तिवलकारिणी स्मृते स्थैर्य धृतिस्तस्या अवष्टंभकारिणी । आवहिदं आत्म द्विता । मधुरं मधुरां । कण्णादि कर्णाहुति । जदिपा देदि यदि न दणात् । सिविखुमानयनकारिणी आराहणा पत्ता होदि त्यक्ता भयसि ।
____ मूलारा--धिदिवलकर स्मृतिम्धेगावष्टंभकारिणः । कण्णाहुदि कर्णयोराइतिहीम इन संतपकत्वान। कर्णजपमित्यर्थः । आवहन्ती कुर्वती ॥
अर्थ-निर्यापकाचार्य की वाणी धर्य उत्पन्न करती है. आत्माके हितका वर्णन करती है. मधुर और कोल्हादक होती है. आचार्य यदि ऐसे वाणीका उपयोग न करेंगे तो मुक्तिसौख्यकी प्राप्ति करनेवाली आराधनाओंका क्षपक त्याग करेगा.