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________________ मूलाराधना ४६५ बहुगाणं संवेगो जायदि सोमत्तणं च मिच्छाणं ॥ मग्गो यदीविदो भगवदो य आणाणुपालिया होदि ॥ २४३ ॥ मिथ्यादर्शनिनां सौम्यं संवेगो भूयसां सतां ॥ मुक्तेः प्रकाशितो मार्गो जिनाज्ञा परिपालिता ॥ २४४ ॥ विजयोदया - बहुगाणं बहूनां । संवेगो जायदि संसारभीरुता जायते यथा । सभद्धमेकं दृष्ट्वा नूनमत्र भयमस्ति चिमपि समिति जनः प्रवर्तते । एवं तपस्युद्यतमवलोक्य संसारभयादयमेवं क्लिश्यति तदस्माकमध्यनिवारितमे. वेति विभेति । भीतश्च प्रतिकियां प्रारभते । सोमत्तणं च मिच्खाणं मिथ्यादीनां सभ्यता सुमुखता वा जायते । दुर्द्धरमिदं पतीनां इति प्रसन्ना भवतीति । मग्गो यदीविशे मार्गश्च मुक्तेः प्रकाशितो भवति । यतीनां वाह्येन तपसा करणभूतेन चिना कर्मणां निर्जरा नास्तीति । भगवदो अणुपालिदा आणा भगवतः याज्ञा चानुपालिता भवति यतिना बाह्येन तपसा करणेन 1 मूलारा - तपस्युद्यतं दृष्ट्रा अयमेधं क्लिश्यति तदस्माकमध्यनिवारितमेवेति विभेति भीतच तत्प्रतिकर्तुमुत्सहते । समिक्षण सम्यिता दुर्धरनिव तपो यतीनामेति मिध्यादृशोऽपि प्रसन्ना भवन्ति इति तात्पर्य दीचित्रो । तपमैव कर्मणां निर्जरा भवति इति प्रकाशितः । अर्थ - तपश्चरण में तत्पर मुनिको देखकर बहुत मुनिजनों को संसारसे भय उत्पन्न होता है, "इस संसार में भय है इसलिये मैं भी तपमें तत्पर होऊंगा. ऐसा विचार कर वे भी उपमें तत्पर होते हैं. संसारके भवसे यह महा इतना तपः क्लेश भोग रहा है. और हमको भी यह संसारमय दुर्निवार है ऐसा मनमें संकल्प कर उसमे भय युक्त होता है. और भगवान् होकर उसकी प्रतिक्रिया करता है अर्थात् उपचरण में वह भी लीन होना है, गुनिराजों का उग्रतप देखकर मिध्यादृष्टि भी अपनी उग्रता छोडकरे सीम्य बनते हैं, यतिओंका यह तप बडा ही दुर्धर है ऐसा देखकर वे प्रसन्न होते हैं. तपके द्वारा मुक्तिके मार्गका प्रकाशन होता है. क्योंकि बाह्यतरणके बिना कर्म की निर्जरा नहीं होती है. बातपश्वरण करनेसे जिनेंद्र भगवानकी आज्ञा का पालन होता है. आश्वासः ३ २६५
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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