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बलाराधना
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करनेवाले मुनिको आहारकी उष्णतासे इधर उधर लोटना पडेगा. बहुजन जिसमें ठहरते हैं ऐसी वसतिका में रहनेवाला मुनि दूसरोंके वचन सुनकर उनके साथ भाषण करनेमें अपना समय बिता देगा. और अध्ययन नहीं करेगा. अन्तु जो कां वसति है वह मुकुलता रहित होनेसे स्वाध्यायमें तत्पर रहता है, बाह्य तपसे सुख और दुःखोंमें समता प्राप्त होती है. अर्थात् मुनि इसके प्रभाव से सुखमे आनन्द नहीं मानते हैं और दुःखमें दुःखित नहीं होते हैं. अर्थात् सुखमें रागभाव और दुःखमे द्वेषभाव उनको नहीं होता है- रागद्वेषोंके अभाव सुखदुःखका अनुभव आता नहीं है. यही सुखदुःखसमताका स्वरूप हैं. आहार और रसयुक्त घी, दूध वगैरे सुख साधक पदार्थोंका त्याग करनेवाले मुनि सुखमें प्रीति नहीं रखते हैं, क्षुदादिकोंसे दुःख की प्राप्ति होने पर भी संक्केश परिणाम उनके मनमें नहीं होते हैं अतः वे दुःखमें द्वेष नहीं रखते हैं. इस प्रकार पांच गाथाओंसे बाह्य तपके गुण आचार्यजीने कड़े हैं.,
आदा कुलं गणो पत्रयणं च सोभाविदं हवदि सव्वं ॥ अलसवर्णं च विजढं कर्म च विणिर्य होदि ॥ २४२ ॥ आत्मा भवचनं संघः कुलं भवति शोभनं ॥
मस्तं व्यक्तमालस्यं कल्मषं विनिवारिनम | २४३ ॥ बिजयोया - आदा कुलं गोपवणं च सव्वं सोभाविदं निपटना वापसा स्वयं मनो, गणं. स्वशिष्य संतानश्च शोभानुपतीतो भवति । तव गत्यं च । विजयकं भवति । दुर्घटनः समुयोगात् कम् चणि कर्म संसारमूलं विशेषेण न भवति ।
मूलारा - कुलं स्ववंशः । मजो स्वगुरुशिष्य संतानः सोद्दाविदं शोभामुपनीतं । बिडं स्वक्तं ।
विनिर्द्धतं ॥
अर्थ - अपना आत्मा अपना वंश, अपना गण अर्थात् अपने गुरुके शिष्योंकी परंपरा और जिनमत इन सबको बाह्य तपसे मुनि शोभा युक्त करते हैं. बाह्य तपसे अलगीपनाका त्याग होता है. दुर्धर तपश्चरण में प्रवृत्ति करनेसे संसारका मूलभूत कर्म भी पूर्णपनेसे नष्ट होता है.
आश्वासः
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