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________________ मूलाराधना १६८६ भवति चात्र वृत्तम् - फलं स्यान्मोहनीयस्य प्रयया ॥ प्रशान्तक्षीणमादेषु श्रेण्योः शेषगुणेषु च ॥ यथाम्नायमिदं ध्यानमामनंति मनीषिणः ॥ द्रव्यं भावमथातिसूक्ष्ममधियन्युक्त्या बितर्फे स्फुरन् || अर्थ व्यंजन मंगगीरपि पृथक्त्वेनापि कामता ॥ कमशाननवस्थितेन मनसा पूर्णाकोत्साहवत् । कुंदन दुभिवाशः परशुना विदश्यतिर्मे गतिः ॥ विचार शब्दका स्पष्टीकरण ---- अर्थ - इस ध्यानमें अर्थ के वाचक जो शब्द उनका विचार होता है. अर्थात् संक्रमण होता है. वैसे योगोंके संक्रमणको योगसंक्रमण योगवीचार कहते हैं. ऐसे विचारोंका सुझाव होनेसे इस ध्यान को सत्रोचार कहते हैं. जीव, धर्म, अधर्म आकाश, पुद्गल इत्यादि परिमित अनेक द्रव्यांका ज्ञान करानेवाला जो शब्दभुत वाक्य उस से यह ध्यान उत्पन्न होता है. यह ध्यान एकत्व वितर्क ध्यानसे भिन्न है क्योंकि एकत्ववितर्क ध्यान एक द्रव्यका ही आलंबन लेकर उत्पन्न होता हैं. यह प्रथम ध्यान तीन योगों के सहायसे उत्पन्न होता है और दुसरा शुक्लध्यान फक्त एक योगसे ही उत्पन्न होता है. उपशांत मोहनीय मुनि इस ध्यानका स्वामी है और इतर ध्यानोंके स्वामी क्षीणकराव सुनि हैं. यह ध्यान सवितर्क है इसलिये अवितर्क युक्त जो तीसरा और चौधा ध्यान वह इस ध्यान से भिन्न माना जाता है. इस ध्यानका पृथवस्य सवितर्क सवीचार ऐसा नाम हैं. नामसे ही अन्य ध्यानो से यह विलक्षण है ऐसा मालुम पड़ता है. जेणेगमेव दव्त्रं जोगेणेगेण अण्णदरगेण ॥ खीणकसाओ ज्झायदि तेणेगतं तयं भणियं ॥ १८८३ ॥ ध्यायता पूर्वदक्षण क्षीणमोहन साधुना ॥ एकं द्रव्यमभेदेन द्वितीयं ध्यानमाप्यते । १९५१ ॥ आश्वास 1 १६८६
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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