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मूलाराधना
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प्रपंचयते ' ऐसा उल्लेख किया है. इस तरहके प्रमाणोंसे अपराजित सूरि और श्रीविजयाचार्य एकही है ऐसी हमारी धारणा है.
पं. नाथुराम प्रेमीजी इस टीकाका विनयोदया यह नाम अधिक अन्वर्थक है ऐसा समझते हैं. वे कहते है कि, मुनिओं के आकार में विनयाचार प्रधान है अत एव इसका नाम नियोजया होना चाहिये. परंतु यह युक्ति जोरदार नहीं है. अंधकार जिस समय जिस विषयका वर्णन करते है उस समय उस विषयको मुख्य कर अन्य विषयको गौण कर देते हैं. अर्थात् विनयको जैसी उन्होंने मुख्यता दी है वैसी स्वाध्याय, वैयावृत्य वगैरह विषयोंके वर्णनमें भी मुख्यता दी है अतः जैसा विजयोदया नाम होना चाहिये वैसे इतर विषयों की भी प्रधानता होनेसे अन्यनामकी भी क्यों मुख्यता नहीं मानी जायगी. फिर वे कहते है कि यदि आचार्यका नाम श्रीविजय था तो टीकाका भी श्रीषिजया ऐसा होता परंतु उसके साथ उदय शब्द जोडना उपयुक्त नहीं है. ऐसा कहना भी हमें युक्तियुक्त मालूम नहीं होता. हरिचंद्र कवीने धर्मनाथ तीर्थंकरका चरित्र लिखा है ओर उसका नाम उन्होने धर्मशर्माभ्युदय ऐसा रक्खा है. इस नामसे तो अनभिज्ञ लोगों को यह काव्य है और इसमें धर्मनाथ जिनेश्वरका चरित वर्णन किया है ऐसा बोध होना कठिन हि पडेगा. परंतु इस चरितके पठन से पाठकों को धर्म, शर्म-सुख, और अभ्युदय-स्व संपत्ति प्राप्त होगी ऐसे विचारसे कविने उसको उपर्युक्त लंबाचौडा नाम दिया है और धर्मनाथ के चरितका भी बोध हो जाता है. उसी प्रकार विजयोदया इस शब्दसे टीकाकार के नामके साथ पाठकको कर्म के ऊपर विजय और आत्मोन्नतिको प्राप्ति होगी देखा अभिप्राय सूचित होता है. अत: विजयोदया यह नाम अन्वर्थक हो हैं, निरर्थक नहीं है. ऐसी हमारी धारणा है.
अपराजितसूरीने विस्तृत टीका लिखकर भन्यों को आराधना का वास्तविक स्वरूप समझा दिया है इस टीकाका मनन करनेसे वास्तविक आत्मशांति प्राप्त होगी.
आरावना ग्रंथपर जो टीका लिखते हैं उनको समाधिमरण की प्राप्ति होती है ऐसा श्रीदेवसेन आचार्यजीने सावयधम्मसंग्रह नामक प्रन्थ में विधान किया है. वह इस प्रकार ----
जिणभवणई फारावियई लग्भइ सम्गि विमाणु ॥
अह टिकट आराहणहं होइ समाहिहि ठाणु ॥ १९३ ॥ पृष्ठ ५९ ॥
प्रस्तावना
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