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मृलाराधना
आश्वास
उत्तर--इंद्रियों के इष्टानिष्ट स्पादि विपयापर आत्मा रागी और देषी जब होता है तब उसके रागद्वेष परिणाम कर्मागमनके लिये हेतु बनते हैं. ये राग जीवका अहित करते हैं ऐसा सम्यग्ज्ञान जाचको बतलाता है. सम्यग्ज्ञानयुक्त तपोभावना जो कि विषयसुखाका परित्यागरूप और अनशानादिरूप है इंद्रियोंका दमन करती है . पुनः विषयसुखका सेवन करनेसे रागभाव उत्पन्न होता है परंतु तपोभावनासे जब आत्मा संस्कृत होता है | तब इंद्रियां विषासुलो चरम दोडता नहीं है.
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तपोभाषनारहितस्य दोषमाचरे उत्तरमचंधन सान्तोपन्यासन
इंदियसुहसाउलओ घोरपरीसहपराजियपरस्सो॥ अकदपरियम्म कीवो मुज्झदि आराहणाकाले ॥ १८९ ॥ इंद्रियार्थसुखासक्तः परीषहपराजितः ॥
जीवोऽकृतक्रियः क्लीयो मुद्यत्याराधनाविधी ।। १९१ ॥ विजयोक्या-ईदिश्वसुहसाउलओ इंद्रियमुनस्वावलंपटो। घोरपरीसहपराजिय परस्सो पापहः शोरः दुःसदः शुदादिभिः पराजितोऽभिभूतः सम यः पराङ्मुखतां गतो रखत्रयस्य । अकादपरियम्म कीवो अकृतं परिकर्म तपास धनाया येनारसी अकृतपरिकर्मा । कीयो दीनः । मुज्झइ मुध्यति विचित्ततामामोनि । आराहणाकाले आराधनायाः काले।
सपोभावनाविहीनस्य गाथापंचकेन सहीतोपन्यासेन शेषमानष्ठे--
मूलारा-साउलओ स्वादलपटः । पराइय पराजितः । परझो परारमखो रत्नत्रयस्य । अकदपरियम्म न कुन परिकर्म आराधनायोग्यं तपो येन । कीवो लीयो दीन इत्यर्थः । मुज्झदि विपित्तता याति ।
__ मनोभावना जिसको नहीं है उस पुरुपमें दोष उत्पन्न होते हैं. इस विषयका खुलासा दृष्टान्त देकर आचार्य करते है.
अर्थ-जो पुरुष अर्थात् मुनि इंद्रियमुखोंका आस्वादन करने में लंपट हुआ है, दु:सह भूख तहान वगैरह परीवहसि जो पीडित हुआ है. अतः जो रत्नत्रयसे पराङ्मुख हुआ है, जो आराधनाका रक्षण करने में एसे तपको छोड बैठा है वह मुनि दीन होकर आराधनाके कालमें मोहयुक्त होता है. समाधिमरण यह आराधनाका अन्तिम
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