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________________ मूलाराधना आश्वासः १३८७ धीरपुरिसेहिं जं आयरियं जं च ण तरंति कापुरिसा ॥ मणसा वि विचितेदं तमहं आराहणं काहं ॥ १४८४ ।। पाराधिता महाधीरेधीरैर्मनसापि नो॥ अस्तायां साधयिष्यामि दयीमाराधनामहम् ।। १५४४ ।। विजयोदया-धीरपुरिसेहिं धीरैः पुरुषैर्या भावरिता, यां व शक्नुवन्ति कापुरुश मनसापि न चिंतयितुं तार शीमाराधनामहं करिष्यामि ॥ मूलारा-प तरन्ति न शक्नुवंति । काहं करिष्यामि !! अर्थ-जिसका वीरपुरुषोंनेही आचरण किया है, धैर्यहीन पुरुष जिसको धारण करनेमें बिलकुल असमर्थ हैं ऐसी आराधानाका हे प्रभो ! मैं पालन करूंगा. एवं उचएसाभिदमासादाइत्त को णाम ॥ बीहेज्ज छहादीणं मरणस्स वि कायरो नि णरो ॥ १४८५॥ तवोपदेशापीयूषं पीत्वा को नाम पावनम् ॥ . विभेतीह क्षुदादिभ्यः कातरोपि नरः प्रभो १५४५ ।। विजयोदयावं तुझं एवं भवतामुपदेशामृतमास्वाद्य को नाम बिभेनि कासरोऽपि नरः क्षुधादीन मृत्योर्वा ।। मूलारा--असादइनु आस्वाध । अत्र महाघोरपरीषहेभ्यो मरणाद्वा न भीतिः करिष्यत इति प्रतिज्ञा गम्यते ।। अर्थ-उपयुक्त आपके उपदेशामृतका आस्वाद लेकर कोनसा भययुक्त पुरुषभी क्षुधादिकसे और मरणसे डरेगा ? अर्थात् भययुक्त पुरुष भी आपका उपदेश सुनकर निर्भय होता है और मृत्युसे भी निडर होकर आराधनाओंका आराधन करता है. किं जंपिण्ण बहुणा देवा वि सइंदिया महं विग्धं ॥ तुम्हं पादोवम्गहगुणण कार्दु ण तरिहंति ॥ १४८६ ॥
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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