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________________ आश्वासा मूलाराधना सामान्यालोचनास्वरूपं कथयनि ओघेणालोचेदि है अपरिमिदनराधसबघादी चा ।। बाजीपाए इषं सामगणमहं तु तुच्छोति ॥ ५३६ ।। आचिन भायमल्दोपा वासघातकः ।। इतः प्रभृति वांछामि त्वत्तोऽहं संयम गुरो।।। ५५५ ।। गिजयोदया-भोघणालोदि हु सामान्येन कथयति । कोऽपरिमिव्यराधो सवधादो या बहको अपराधा यस्य मिश्या प्रतभंगो था । परसाक्षिका शुद्धीमायाशल्यं निरस्तं भवति । मानकमायो निर्मूलितो भवति । गुरुजन पूजितो भाति । मनामनंया खुर्गप्रख्यापनाच कृता भवति । अज्जोपाए अद्योपाये अद्यप्रभृतिः । इच्छं सामया इछानि श्रामण्य । अहं तु तुच्छोक्ति अह स्वल्पको रत्नत्रयेणेति इयं सामाभ्यालोचना । सामान्यालोचनास्वरूपं च बकुमाह मूलारा - अपरिमिदवराध बहुदोषः । सवाघादी सर्वेषां सम्यक्त्वत्रतादीनां घातो विनाशोऽस्यास्तीति । अज्जोपाये अनामभृति । इकला इच्छामि प्रतिपदाहम । खु यस्मात् । तुच्छो अहे स्वल्पको रत्नत्रयेण । ति इत्येषमालोचयतीति योयम् ।। सामान्य आलोचनाका स्वरूप कहते हैं अर्थ--जिसने अपरिमित अपराध किये हैं अथवा जिसके रत्नत्रयका-सर्व व्रताका नाश हुआ है वह मुनि सामान्यरीतीसे अपराधका निवेदन करता है. जो मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ अथवा जिसके व्रत नष्ट हुए हो वह सामान्यालोचना करता है. परसाक्षिसे शुद्धि कर लेनेसे मायाशल्यका, नाश होता है. मानकायका निर्मूलन होता है. प्रायश्चित्त लेनेस गुरूजनोंका आदर होता है. अर्थात् उनकी आज्ञाका पालन होता है. उनके आधीन रहकर व्रताचरण करनेसे मार्गक्री प्रसिद्धि होती है. आजसे मैं पुनः मुनि होनेकी इच्छा करता हूं. मैं तुच्छ हूँ अर्थात् मैं रत्नत्रयसे आप लोगोंमे छोटा हूं ऐसा कहना सामान्यालोचना है, शिशपालोचनामा एव्यजादी सव्वं कमेण जे जत्थ जेण भात्रेण ॥ पडित विद तहा तं आलोचिंतो पदविभागी ॥ ५३५ ॥ ७५२ - - T
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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