SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाराचना ૨૮ te शंकनीयः । यं यथायं व्याचष्टे सूत्रार्थं स तयैवेति मन्तव्यः । सो चैव गीतार्थ एव । मंदधम्मो सातिचारचारिश्रः । भवणिजः भाग्यः । यदि मन्नानुसारी युक्तियुकं वा तद्याख्यानं ततो माझं नान्यथेत्यर्थः । इन महर्षियों किसी भी बनाये हुए सूत्र हम प्रमाण मानते हैं, परंतु इनका अर्थका कथन करनेवालों में हम किसको सत्यार्थ प्रतिपादन करनेवाला समझे और किसको न समझे? ऐसी शंकाका निरसन करते हैं. प्रथमतः अविपरीत पदार्थका विवेचन करनेवालेका लक्षण आगेकी गाथासे कहते हैं--- हिंदी अर्थ --- जिसने सूत्रका अर्थ समीचीनरूपसे जान लिया है, तथा जिसके अंतःकरण में कमरूप, द्रव्यसंसार और भावरूप कषाय, मिथ्यात्वादिरूप भावसंसारसे भय उत्पन्न हुआ है ऐसे व्यक्तिद्वारा कहा हुवा सूत्रार्थ निःसंशयचित्त होकर प्रमाण मानना चाहिये. यदि रागभावसे अथवा क्रोधसे में विपरीत उपदेश करूंगा तो अनंतकालपर्यंत मिध्यादृष्टियुक्त ऐसे मेरेको संसार में भ्रमण करना पडेगा ऐसा जिसके मन में भय है उसको संवि कहते हैं. उसको सूत्रार्थके कहने में प्रमाणता है. परंतु जिसका चारित्र मंद है उसको सूत्रार्थनिरूपण में प्रमाण मानना विकल्पनीय है, अर्थात् यदि उसका व्याख्यान सूत्रानुसार और युक्तियुक्त हो तो ग्रहण करना चाहिये. सा न हो तो ग्रहण करना नहीं चाहिये. . किमधिगतसमपंच्चवचनार्थो भूत्वा श्रद्धावान्यः स एव च सम्यग्दृष्टिः स एव सम्यक्त्वाराधका हत्यारेका माइ अन्योन्यस्तीति धम्मा धम्मागासाणि पोग्गला कालदव्व जीवे य ॥ आणा सदहन्तो समताराहओ भणिदो ॥ ३६ ॥ सिद्धाः संसारिणी जीवाः प्रयाताः सिद्धिमेकधा ॥ आज्ञया जिननाथानां श्रद्धेयाः शुद्धदृष्टिना ॥ ३९ ॥ विजयोदया – धम्मार्धम्मागासाणित्ति - जीवपुद्गलयोः स्वावस्थिताकाशदेशादेशान्तरं प्रतिगतिः परिस्पंदपर्यायः परप्रयोगतः स्वभावतो वा विद्यते । अन्येषां निष्क्रियतेति न गतिरस्ति । अनयोर्गतिपर्यायस्य वा गतिहतुत्य er आश्वासः १ १२८
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy