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________________ मूलाराधना आश्वासः उस गणके मुनिओंके द्वारा आज्ञाभंग करनेका प्रसंग आता ही नहीं, और याद उन्हान आचार्थ को आज्ञा नहीं भी मानी तो भी आचार्य इनके ऊपर तो मैंने कुछ भी उपकार किया नहीं अतः ये मेरा वचन क्या शिरोधार्य करेंगे ऐसा विचार कर अपने परिणामोंकी शान्तता नष्ट नहीं करते हैं इसलिय अगमावि नामक दोगकी उत्पत्ति परगणामें रहनेसे नहीं होती है. आज्ञाकोप नामक दोषका विवचन हु'प्रा. आशाकोपदो अभिधाय द्वितीय व्याव खुड्डे घेरे मेहे असंबुड़े दङ्ग कुणइ वा परुम ।। ममकारेण भणेज्जो भणिज्ज वा तेहिं परुसेण ॥ ३८८ ।। थालान्वृद्धाशक्षकान्दुष्टचेष्टान् दृष्ट्वा सूरिनिष्टुरं वत्ति वाक्यम् ।। किंचिंद्रागद्वेषमोहादियुक्तास्ते या करूयुःसंस्तरमामधायाः ।। ३..।। विजयोदया-हे यरे सेहे क्षुल्लकास्थविरानमार्गांश्च! असंबुद्ध थपवतान असंयता वा दाटसा घा परसं करोति या परुष । ममकारेण भणेजो ममत्वन वदेवा परुपं । मण्णिा वा ति पला । ।:: परुष यचः॥ परुर्ष त्र्याचरे मूलारा-असंयुडे असंवृतान् प्रमादाचरणानित्यर्थः । द इया। मां का नाम : इत्यर्थः । भणज्ज भण्यत । एसरेण प्रबंधन परिचयकृतघृष्टतावमात् ।। अब दुसरा दोष कहत हैं अर्थ-परुष नामक दोषका स्वरूप इस प्रकार है-क्षुल्लक गृहस्थ, बुद्धनि, और अमार्गन मुनि ये प्रमादसे असंयमपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं ऐसा देखकर उनको आचार्य परुषभाषण करेंगे. ये मेरे मंघमें रहकर एगा प्रमादयतः आचरण करते हैं ऐसा मन में विचार कर उनको कठोर भाषण करेंगे अथवा च वृद्धमान बगैर उनके साथ करार भाषण करेंगे. अपने संघमें ही रहनेसे वृद्धादि मुनिओंके साथ अधिक परिचय रहना है, जिसमें न आचार्य को आचार्य उनको कठोर भाषण करेंगे तब परुष नामक दोष उत्पन्न होगा. Jit enamental
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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